आदरणीय साथिओ,
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ढेरों बधाई आप को आदरणीय राज्यवर्धन जी बढ़िया कथा हुई है |
जातिगत आधार होने से कहानी की संप्रेषणीयता सदैव बाधित होती हैं
"गलतियाँ दोहरायी नहीं जातीं चचा जान" बहुत बढ़िया पंचलाइन है आदरणीय राज्यवर्धन जी. इस बढ़िया सन्देशप्रद कथा हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. //एक और ने क्रूरता से कहा।// मुझे लगता है यहाँ "क्रूरता" शब्द हटा देना बेहतर होगा. सादर.
हार्दिक बधाई आदरणीय राज्यवर्धन सिंह जी। लाज़वाब लघुकथा।
चाय की गुमटी के आसपास काफी चहल पहल थी, चाय की चुस्कियों लेते लोगों के ठहाकों के स्वर भी बीच बीच में उभर रहे थेI किन्तु गुमटी के पीछे बैठे वे दोनों साथी बहुत उदास दिख रहे थेI उनकी चाय ठण्डी हो रही थी और हाथ में पकड़ी बीड़ियाँ भी बुझने को थींI काफ़ी देर की ख़ामोशी के बाद एक ने चुप्पी तोड़ी:
“बहुत बुरा वक़्त चल रहा है भाई! पता नहीं ये कैसा ज़माना आ गया हैI” बुझती हुई बीड़ी का अंतिम कश खींचते हुए एक ने कहाI “सही कह रहे तो यार, कितना अच्छा टाइम था वोI” चाय की प्याली उठाते हुए दूसरे ने हामी भरीI  
“क्या ज़माना था यार, हर रोज़ मुर्गा-मच्छी और अंग्रेजी दारूI” पुराने समय को याद करते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गईI 
“अब तो लगता है कि भूखो मरने की नौबत आने वाली हैI” एक आह उभरीI
“साल में दो दो बार पहाड़ों की सैर पर जाना, खाना-पीना, खूब मौज मस्ती करनाI” अतीत की रंगत उसके चेहरे पर उभर आईI
“सही कह रहे हो, कितने महंगे महंगे होटलों में ठहरा करते थे हमI”
“और अब देखो, साली दाल रोटी का जुगाड़ भी बड़ी मुश्किल से होता हैI”
“तुम्हें याद है बड़े बाज़ार के दंगों में कितना माल बनाया था मैने?”
“याद है भाई! मैंने भी तो लाल चौक वाले फसादों के बाद ही खुद का मकान खरीदा थाI”
“अरे मैंने तो दोनों बच्चों की शादी भी उसी कमाई से की थीI”
“अब तो साला ज़माना ही बदल गया हैI” एक उदास स्वर उभराI  
“वो ज़माना वापिस कब आयेगा यार?”
गुमटी वाला बूढ़ा; जो उन दोनों की बाते सुन रहा था, उनके पास आया और दोनों के कन्धों पर हाथ रखते हुए पूछा:
“पुराने वक्तों को याद कर रहे हो बच्चो?”
“अरे चाचा वो तो...I” यह अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर, वह दोनों सकपका उठेI   
“भूल जाओ बच्चो! वो ज़माना अब शायद कभी वापिस नहीं आएगाI” खाली गिलास उठाते हुए उसने कहाI
“क्यों चाचा?” दोनों साथिओं ने एक स्वर में प्रश्न चिन्ह उछालाI    
“तुम्हे याद है वो टाइम, जब एक ही आवाज़ पर हमारे लोग सड़कों पर निकल आते थे?”
“हाँ चाचा! मगर अब तो लगता है कि किसी को फुर्सत ही नहीं हैI”
“बिलकुल सही कहा तुमनेI मैं भी इसी तरफ इशारा कर रहा हूँI”
“इसका मतलब ये कि सरकार के साथ साथ हमारे लोग भी हमारे दुश्मन हो गए हैं?”
“नहीं, बिलकुल नहींI दुश्मन न तो सरकार है न हमारे लोगI”
“तो फिर वो दुश्मन कौन है चाचा?”
सड़क की दूसरी तरफ बने कारख़ाने और स्कूल की तरफ इशारा करते हुए चाचा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:  
“वो रहे तुम्हारे असली दुश्मनI”
.
(मौलिक और अप्रकाशित)
रचना के मर्म तक पहुँच कर उसे सराहने हेतु हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी.
चाय की चुस्कियों लेते लोगों के- चाय की चुस्कियाँ ले रहे लोगों के = एक ही बात है दोनों में 
सही कह रहे तो यार- सही कह रहे हो यार = यह ईस्टर एग तो मैंने उस्मानी भाई के लिए छोड़ा था. 
पुराने वक्तों को याद- पुराने वक्त को याद = वक्तों सही है, क्योंकि यह वार्तालाप की भाषा है विवरण की नहीं.  
भूखो- भूखों = वार्तालाप में तो भूकों/भूको भी चल सकता है.
कथा पर उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु हार्दिक आभार भाई सुनील वर्मा जी.
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