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ओस कण ...

ओस कण ....

ओ भानु !
कितने अनभिज्ञ हो तुम
उन कलियों के रुदन से
जो रोती रही
तुम्हारे वियोग में
रात भर
सन्नाटे की चादर ओढ़े
और बैरी जग ने
दे दिया
उन आँसूओं को
ओस कणों का नाम

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on September 16, 2018 at 12:38pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब .... सृजन आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। भ्रम सही है सर।

Comment by Sushil Sarna on September 16, 2018 at 12:38pm

आदरणीय नरेंद्र चौहान जी सृजन पर आपकी मधुर प्रशंसा का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on September 16, 2018 at 12:37pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ... सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है।

Comment by Samar kabeer on September 13, 2018 at 3:11pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब, बहुत उम्दा कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

जो रोती रही'--"जो रोती रहीं"

Comment by narendrasinh chauhan on September 12, 2018 at 1:34pm

लाजवाब । सर हार्दिक बधाई । 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2018 at 6:38am

आ. भाई सुशील जी, बेहतरीन कविता हुयी है । हार्दिक बधाई ।

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