बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन
झूठ का इश्तहार खूब चला।
इस तरह कारोबार खूब चला।
कोने कोने में मुल्क के साहब,
आप का ऐतबार खूब चला।
गाँव तो गाँव हैं नगर में भी,
रात भर अंधकार खूब चला।
जो हक़ीक़त से दूर था काफी,
वो भी तो बार बार खूब चला।
नोट में दाग थे बहुत लेकिन,
नोट वो दाग़दार खूब चला।
सबने देखा है किस अदा के साथ,
बेवफा तेरा प्यार खूब चला।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदर्णीय समर कबीर साहब सादर आभार उत्साह वर्धन करने के लिये।
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी बहुत बहुत शुक्रिया ग़ज़ल सराहना के लिये।
जनाब राम अवध जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
वाह वाह बहुतखूब ग़ज़ल हुई आदरणीय..सादर
आदर्णीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ग़ज़ल सराहना के लिये आपका शुक्रिया। कारोबार में 'रो' का वज़्न गिराया जाने के कारण 2121 हो गया है।
आद0 रामअवध जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई कुबूल करें।
एक जिज्ञासा थी, कारोबार का वजन क्या लिया आपने।
आदर्णीय अजय तिवारी जी आप की टिप्पणी मुझे उर्जा प्रदान करती है। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर
सामयिक परिदृश्य पर पर प्रभावशाली व्यंग!
आदरणीय राम अवध जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई. सादर.
आदर्णीय आरिफ साहब हौसला बढ़ाने एवं ग़ज़ल सराहना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय राम अवध जी आदाब,
शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
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