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यहाँ हुजूर - ग़ज़ल- बसंत कुमार शर्मा

मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलात

मापनी २२१/२१२१/१२२१/२१२

 

करते नहीं हैं’ लोग शिकायत यहाँ हुजूर,

थोड़ी तो’ हो रही है’ मुसीबत यहाँ हुजूर.

बिकने लगे हैं’ राज सरे आम आजकल,

चमकी खबरनबीस की’ किस्मत यहाँ हुजूर.

बिछती कहीं है’ खाट, कहीं टाट हैं बिछे,

हो हर जगह रही है’ सियासत यहाँ हुजूर.

पलते रहे हैं’ देश में जयचंद हर जगह,

पहली नहीं है’ आज ये’ आफत यहाँ हुजूर.

मिल तो गई हैं कुर्सियाँ सबको बड़ी बड़ी,

मुश्किल मगर दिलों पे’ हुकूमत यहाँ हुजूर

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 27, 2017 at 9:01am

आदरणीय  laxman dhami जी एवं आदरणीय  बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका दिल से शुक्रिया 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 26, 2017 at 10:01pm
बेहतरीन ग़ज़ल हुई आदरणीय..हार्दिक बधाई
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 26, 2017 at 9:43pm
बहुत सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 26, 2017 at 3:47pm
आदरणीय रवि शुक्ला जी आपकी हौसला अफजाई और सुझाव दोनों के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, यूँ ही स्नेह बनाये रखें. सादर
Comment by Samar kabeer on July 26, 2017 at 3:15pm
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
बाक़ी जनाब रवि जी बता ही चुके हैं ।
Comment by Ravi Shukla on July 26, 2017 at 1:44pm

आदरणीय बसंत सर बहुत अच्‍छी बहर चुनी आपने अपने अशआर के लिये और उतने ही अच्‍छे अशआर कहे आपने । तीसरे शेर का सानी मिसरा कुछ और बेहतर हेा सकता है । एक त्‍वरित सुझाव के रूप में ( होती है जा ब जा क्‍यूँ सियासत यहॉं हुजूर ) पर विचार कर स‍कते है आप  । दूसरे शेर के सानी मिसरे में खबर नवीस कर लीजियेगा । आखिरी शेर में बहुत अच्‍छी बात कही आपने । गजल के लिये दिली मुबारक बाद कुबूल करें ।सादर

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