टिपर-टिपर-टिप
टिपर-टिपर-टिप
पानी की इक बूँद झूम कर
मुस्काई फिर ये बोली...
मैं अलमस्त फकीर
टिपर-टिप
मैं अलमस्त फकीर...
चंचलता जब ओस ढली तो
पत्तों नें भी जोग लिया,
उनके हिस्से जितना मद था
सब का सब ही भोग लिया,
बाँध सकी पर बूँदों को कब
कोई भी ज़ंजीर...
टिपर-टिप
मैं अलमस्त फकीर...
रिमझिम-रिमझिम जब बरसी तो
जीवन के अंकुर फूटे,
अम्बर की सौंधी पाती ने
जोड़े सब रिश्ते टूटे,
बूँदें ही जीवन गाथा में
घोलें रंग अबीर...
टिपर-टिप
मैं अलमस्त फकीर...
सीप सँजो ले स्वाति बूँद तब
मोती बन कर इतराऊँ,
आस लगाए जब-जब मरुधर
दरिया सी दौड़ी आऊँ,
कभी ख़ुशी की छलकी गागर
कभी सिसकती पीर...
टिपर-टिप
मैं अलमस्त फकीर...
किसी दौर में किसी ठौर में
ना ओढ़ा स्वामित्व कभी,
पर सागर हो या गागर हो
ना खोया अस्तित्व कभी,
कहाँ चाहना भी ऐसी, मैं
खींचूँ अमिट लकीर...
टिपर टिप
मैं अलमस्त फकीर...
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
दौर ठौर वाली पंक्ति की मात्रिकता पर ध्यान आकर्षित करने के लिए सादर धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी
उसे "किसी दौर में किसी ठौर में" ऐसा कर रही हूँ
एक अरसे बाद पटल पर सुमधुर सस्वर कोई गीत साझा हुआ है. स्वागत है. भावपक्ष का कहना ही क्या ? वाह ! अंतर का दर्द अलमस्त अंदाज़ में निस्सृत हुआ है.
शैल्पिक गहनता को सार और सरसी छंद ने गहराए दी है. छंदों का ऐसा प्रयोग सहज ही श्लाघनीय है. तो फिर, ’दौर कोई हो ठौर कोई हो’ जैसी पंक्ति स्थान पा गयी ? आपके सधे हाथों से मात्रा का गिरना असहज कर गया.
प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाइयाँ..
आप सभी सुधि पाठकों का अनमोल प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया
आ. प्राची जी बहुत दिनों बाद आपकी रचना से गुज़र रहा हूँ, बेहतरीन गीत हुआ है बहुत बहुत बधाई आपको
कहाँ चाहना भी ऐसी, मैं
खींचूँ अमिट लकीर...
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मैं अलमस्त फकीर...
बहुत खूब आदरणीय डॉ प्राची जी ... बहुत ही सुंदर और दिलकश प्रस्तुति हुई है ... हार्दिक बधाई
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