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ग़ज़ल -- मैं अगर क़तरा हूँ दरिया कौन है ( दिनेश कुमार )

2122--2122--212

जो समेटे मुझको ऐसा कौन है
मैं तो इक क़तरा हूँ दरिया कौन है

ग़ौर से परखो मेरे किरदार को
मुझ में ये मेरे अलावा कौन है

कश्तियों का है सहारा नाख़ुदा
नाख़ुदाओं का सहारा कौन है

कृष्ण से मिलने की चाहत है किसे
द्वारिका में अब सुदामा कौन है

पत्थरों में आग बेशक है छिपी
ध्यान से इनको रगड़ता कौन है

सामने है पूर्वजन्मों का हिसाब
कौन है अपना, पराया कौन है

ज़हन में जिसके भरा है ' मैं ' ही बस
उसने कब सोचा है द्रष्टा कौन है

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Ashok Kumar Raktale on January 12, 2017 at 10:11pm

ग़ौर से परखो मेरे किरदार को
मुझ में ये मेरे अलावा कौन है............वाह !

पत्थरों में आग बेशक है छिपी
ध्यान से इनको रगड़ता कौन है.............बहुत खूब.

आदरणीय दिनेश कुमार जी सादर, खूब अशआर निकाले हैं. उम्दा गजल के लिए दिली मुबारकबाद कुबूलें. सादर.

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 12, 2017 at 8:54pm
वाह वाह क्या खूब ग़ज़ल हुई बेहतरीन...

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 12, 2017 at 5:04pm

आदरणीय दिनेश भाई , बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल हुई है , मुबारकबाद कुबूल करें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 12, 2017 at 5:04pm

आदरणीय दिनेश भाई , बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल हुई है , मुबारकबाद कुबूल करें ।

Comment by Mohammed Arif on January 12, 2017 at 2:41pm
आदरणीय दिनेश कुमारजी , अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें । सादर...
Comment by दिनेश कुमार on January 11, 2017 at 9:49pm
आदरणीय समर साहब की इस्लाह के बाद मतला कुछ यूँ पढ़ें ---
जो समेटे मुझको ऐसा कौन है
मैं तो इक क़तरा हूँ दरिया कौन है.
शुक्रिया सर.
Comment by दिनेश कुमार on January 11, 2017 at 5:56am
आ. समर सर, हौसला अफज़ाई के लिए हार्दिक आभार।
मतला दुरुस्त करने की कोशिश कअरता हूँ सर।
Comment by दिनेश कुमार on January 11, 2017 at 5:53am
आ मिथिलेश भाई हौसला अफ़ज़ाई के लिए हार्दिक आभार। नवाज़िश।
Comment by Samar kabeer on January 10, 2017 at 10:02pm
जनाब दिनेश कुमार'दानिश'साहिब आदाब,ग़ज़ल के अशआर आपने अच्छे निकाले हैं आपने,इसके लिये मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
लेकिन आपकी ग़ज़ल में मतला नहीं हो सका इसका अफ़सोस है, दोनों मिसरों में आपने दो सवाल रख दिये हैं बस,दोनों सवालों में कोई रब्त नज़र नहीं आता,इसलिये मतला नहीं हुआ,अस्ल में इस रदीफ़ के साथ मतला कहना ही सबसे दुश्वार अमल है, उसके बाद शैर कहना बहुत आसान हो जाता है,अब देखना ये है कि आप मतले में क्या तब्दीली करते हैं ।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 10, 2017 at 5:01pm

आदरणीय दिनेश भाई जी, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. अशआर एक से बढ़कर एक हुए हैं लेकिन इन अशआर का जवाब नहीं-

कश्तियों का है सहारा नाख़ुदा
नाख़ुदाओं का सहारा कौन है

कृष्ण से मिलने की चाहत है किसे
द्वारिका में अब सुदामा कौन है

इस शानदार ग़ज़ल पर दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं. सादर 

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