उसके दरबार में ……………
पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निश्चित है कि
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है
कुछ पुष्प और अगरबती के बदले
हम प्रभु से जहां के सुख मांगते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
उसकी चौखट पे अपना सर झुकाते हैं
अपनी इच्छाओं पर
अपना अधिकार जताते हैं
इधर उधर देखकर
प्रभु के परम भक्त होने पर इतराते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
चन्द सिक्के दान कर
महा दानी बन जाते हैं
इस काया और माया पे
किसका अधिकार है
ये भी भूल जाते हैं
जानते हैं इस नश्वर संसार में
हर शै नाशवान है
फिर भी अपनी साँसों पे
कितना अभिमान है
मंदिर जाकर शायद
भौतिक संतुष्टि तो हो जाएगी
मगर
उसके दरबार में
जब तक
अहं के ताज़ को तज कर
निस्वार्थ भाव से
सर न झुकायेंगे
न ईश
हमें मिल पायेगा
न हम
ईश के हो पाएंगे
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय narendrasinh chauhan जी रचना में निहित भावों को स्वीकृति देती आपकी मधुर प्रशंसा का दिल से आभार।
खूब सुन्दर रचना
आदरणीय गिरिराज भाई साहिब रचना के मर्म को अपनी आत्मीय स्वीकृति से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Mahendra Kumar जी रचना में निहित भावों को स्वीकृति देती आपकी मधुर प्रशंसा का दिल से आभार।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना में निहित भावों को अपनी सहमति से अलंकृत कर उसका मान बढाने का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी रचना के मर्म को सहमति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरनीय सुशील भाई , एक कटु सत्य लिखा है आपने, हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय सुशील सरना सर, प्रार्थना के महत्त्व, उसकी वास्तविकता और उसके सार को शाब्दिक करती बहुत बढ़िया संदेशप्रद प्रस्तुति हुई है. वास्तव प्रार्थना का मूल निस्वार्थ भाव ही है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर
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