बह्र : 1212 1122 1212 22
प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे
गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे
वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे
न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे
जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से लेकिन गुलाम तक पहुँचे
वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे
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(मौलिक एवंं अप्रकाशित)
Comment
शुक्रिया आदरणीय आशुतोष मिश्र जी
शुक्रिया आदरणीय सुरेंद्र नाथ जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सोमेश जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर साहब। आप की बात ठीक है प्रगति उच्चारण के अनुसार 111 हो रहा है इससे लयभंग की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद
आदरणीय घमेंन्द्र सिंंह जी बहुत बहुत बधाई इस बढि़या गजल के लिये
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