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पर्दा जो उठ गया तो हुआ काला धन तमाम
चोरों की ख्वाहिशों के जले तन बदन तमाम
बरसों से जो महकते रहे भ्रष्ट इत्र से
इक घाट पे धुले वो सभी पैरहन तमाम
बावक्त असलियत का मुखौटा उतर गया
किरदार का वजूद हुआ दफ़अतन तमाम
ये बंद खिड़कियाँ जो खुली, पस्त हो गई
सब झूट औ फरेब की बदबू घुटन तमाम
परवाज पर लगाम जो माली ने डाल दी
भँवरे का हो गया वो तभी बाँकपन तमाम
ईलाज में दवाएँ भी नाकाम हो रही
ईमान की खुराक से सुधरे वतन तमाम
जादू न जाने क्या था मदारी के खेल में
बेहोश इक नजर में हुई अंजुमन तमाम
----मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० समर भाई जी ,ग़ज़ल पर आपकी दाद व् इस्स्लाह दोनों का तहे दिल से स्वागत है मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ | भाई जी इस बार मुशायरे के ठीक पहले एक नजदीकी रिश्तेदार की मृत्यु की दुखद सूचना मिली तो तुरत फुरत में भागना पड़ा आज ही वापस लौटी हूँ |
ब्रिजेश कुमार बृज जी ,आपका बहुत- बहुत आभार |
आद० बृज नाथ शर्मा जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया |
आद० शेख़ उस्मानी जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखनकर्म सार्थक हुआ दिल से बहुत- बहुत आभार आपका |
मोहतरम तस्दीक साहब ,ग़ज़ल पर आपकी दाद मिली तहे दिल से आभार आपका |आपकी इस्स्लाह का स्वागत है |
ऑ० राजेश दी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें l
गज़ल अच्छी बनी है। हार्दिक बधाई।
आ० दीदी मुशायरे से अलग यहाँ ? बहुत उम्दा गजल है . मुबारकबाद .
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