1222 1222 1222 1222
ज़ुमुररुद कब किसी मुफ़्लिस के घर चूल्हा जलाता है
मिरी जाँ ये तो बस शाहों कि पोशाकें सजाता है
रिआया भी तो देखो कितनी दीवानी सी लगती है
उसी को ताज़ कहती है जो इनके घर जलाता है
नगर में नफ़रतों के भी महब्बत कौन समझेगा
ए पागल दिल तू वीराने में क्यों बाजा बजाता है
हमारे हौसले तो कब के आज़ी टूट जाते पर
ये नन्हा सा परिंदा है जो आशाएँ जगाता है
कोई बेचे यहाँ आँसू तो कोई ज़िस्म बेचे है
खुदाया पेट भी इंसान से क्या क्या कराता है
गज़ब का इश्क़ है आज़ी ख़ुदा का ख़ुद के बंदो से
कभी दिल तोड़ देता है कभी वादा निभाता है
तमाशा देख कर हमको फ़कत इतना समझ आया
जो कश्ती पार करता है वही कश्ती डुबाता है
न लेकर प्यास लब पर तुम समंदर पर कभी जाना
सुना है ज़ख़्म पर सबके नमक पैहम लगाता है
कहाँ कोई किसी के वास्ते जीता है दुनिया में
कहाँ कोई किसी के वास्ते अब जाँ लुटाता है
चरागों से कोई पूछे फ़कत मज़बूरी का आलम
हवा का साथ भी लाज़िम है और डर भी सताता है
मौलिक व अप्रकाशित
आज़ी तमाम
Comment
सादर प्रणाम आ ब्रजेश जी
सहृदय शुक्रिया हौसला अफ़ज़ाई का
आपके प्रयास बड़े अच्छे लगते है भाई आज़ी...बाकी गुरुजनों की नजर है तो सब है।
सादर प्रणाम आ धामी सर
हौसला अफ़ज़ाई के लिये सहृदय शुक्रिया
जी धामी सर गुणीजनों के मार्गदर्शन में ग़ज़ल मुकम्मल हुई है
गुणीजनों को दिल से धन्यवाद
आ. भाई आज़ी तमाम जी, गजल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई । शेष सुधीजन कह चुके हैं । सादर..
सादर प्रणाम आ अमीर जी
ग़ज़ल तक आने व मार्गदर्शन करने के लिये सहृदय शुक्रिया
जी बदलने का प्रयास करता हूँ मिसरे
सादर
जनाब आज़ी तमाम साहिब आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार करें।
ज़ुमुररुद को टाईटल में भी ठीक कर लें।
'तिलिस्मी रत्न बस शाहों कि पोशाकें सजाता है' इस मिसरे में रत्न के साथ तिलिस्मी शब्द (जादुई) का गठजोड़ उचित नहीं है वैसे भी दोनों शब्द अलग अलग भाषाओं के हैं। यूँ कह सकते हैं - 'जवाहर ये तो बस शाहों की (not कि* एक मात्रा की छूट ले सकते हैं) पोशाकें सजाता है'
'उसी को ताज़ कहती है जो इनके घर जलाता है' इस मिसरे का शिल्प ठीक नहीं है, इसे यूंँ कह सकते हैं -
'उसी को ताज पहनाती जो इनके घर जलाता है'। कुछ टंकण त्रुटियों की ओर आपका ध्यानाकर्षण चाहता हूँ, सादर।
'या रब ये पेट भी इंसान से क्या क्या कराता है' यहाँ एक मात्रा की छूट न लेकर यूँ कहने से मिसरे में गेयता बढ़ जाएगी -
'ख़ुदा या पेट भी इंसान से क्या क्या कराता है'
सादर प्रणाम गुरु जी
गलतियाँ सुझाने व हौसला अफजाई के लिये सहृदय शुक्रिया
ठीक करके फ़िर से पोस्ट करने की कोशिश करता हूँ
सादर गुरु जी
जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, ग़ज़ल अभी समय चाहती है,बहरहाल इस प्रयास पर बधाई स्वीकार करें ।
'ज़मुर्रद कब किसी मुफ़्लिस के घर चूल्हा जलाता है'
इस मिसरे में सहीह शब्द है "ज़ुमुररुद"
'जम्हूरियत भी तो देखो कितनी दीवानी सी लगती है'
ये मिसरा बह्र में नहीं है,देखिये ।
'नगर में नफ़रतों के इश्क़ इबादत कौन समझेगा'
ये मिसरा बह्र में नहीं है,देखिये ।
'कहाँ कोई किसी को अब यहाँ पर याद रखता है
ज़रा सा क्या हो जाये सुर्ख रू की भूल जाता है'
इस शैर पर मतले का गुमान होता है,सानी का वाक्य विन्यास ठीक नहीं ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online