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Featured Blog Posts – December 2013 Archive (23)


सदस्य टीम प्रबंधन
वर्ष नवल शुभ मंगलमय हो ......... डॉ० प्राची

नित्य प्रगति सोपान गढ़ें हम

वर्ष नवल शुभ मंगलमय हो ......

 

गत्य धुरी पर आगत नित नव

युग्म सतत, प्रति क्षण हो उत्सव,

सद्विचार सन्मार्ग नियामक

ऊर्ध्व करें मानवता मस्तक,

मिटे कलुषता का अँधियारा, हृदय ज्ञान से ज्योतिर्मय हो ......

नित्य प्रगति सोपान गढ़ें हम, वर्ष नवल शुभ मंगलमय हो ......

 

परिष्कार को प्रतिक्षण तत्पर

संकल्पित अभ्यास सतत कर,

नित्य ज्ञान हित सर्व समर्पित

क्षुद्र अहम् कर पूर्ण…

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Added by Dr.Prachi Singh on December 31, 2013 at 11:30am — 43 Comments

शुभ नवल वर्ष

पूर्व संध्या की हुई विदाई

भाव भीनी भीनी

राजा जी का महल जागा

नव वर्ष की कर अगवानी

*

मंदिर का बजा घण्टा

ले टीका चंदन का

धूप दीप कर्पूर की आरती

पूरी घाटी महकी चंदन सी

*

सूरज अलसाता जागा

बादलों का मोह न छोड़ा

रहा दिन सोया सोया

सांझ पर न पहरा कोई

*

कुछ बुँदों की टीप टाप

पवन में सुर न जागा

आधि दुनिया में हो-हल्ला

आधि दुनिया खोयी खोयी.

*

कहीं आदि कहीं अंत

कहीं मातम कहीं खुशी

दक्षिणी…

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Added by coontee mukerji on December 30, 2013 at 10:30pm — 17 Comments

नूतन साल आया (गज़ल) - कल्पना रामानी

212221222122

 

पूर्ण कर अरमान, नूतन साल आया।

जाग रे इंसान, नूतन साल आया।

 

ख़ुशबुओं से तर हुईं बहती हवाएँ,

थम गए तूफान, नूतन साल आया।

 

गत भुलाकर खोल दे आगत के द्वारे,

छेड़ दे जय गान, नूतन साल आया।

 

कर विसर्जित अस्थियाँ गम के क्षणों की,

बाँटकर मुस्कान, नूतन साल आया। 

 

मन ये तेरा अब किसी भी लोभ मद से,

हो न पाए म्लान, नूतन साल आया।

 

पूछता है रब कि  तेरी, क्या रज़ा…

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Added by कल्पना रामानी on December 30, 2013 at 10:00pm — 31 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नये युग की शुरुआत लिखें

सूखे पत्तों के ढेर में

उम्मीद का

एक अंकुर फूटा

 

सूखे पत्ते मानो,

लाशें हैं

लाश हारे हुये लोगों की

लाश,

पराधीनता को किस्मत समझ

डर-डर के जीने वालों की

 

वो अंकुर है

भाग्योदय का

कीचड़ में उतर

परजीवियों को

साफ कर

समाज से

बीमारी हटाने वालों का

जो एक ज़र्रा था कल तक

आज

ज़माना उसकी चमक देख रहा है

 

अपनी नन्हीं आँखें खोल

मानो, कह रहा…

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Added by शिज्जु "शकूर" on December 30, 2013 at 10:52am — 32 Comments

सुबह का सूरज --नवगीत !

नवगीत 
********
सुबह का सूरज 
आसमान में चढ़ जाये 
 
नव प्रभात के 
शब्द-सुमन ले 
कलरव का 
उसमे चिंतन ले 
किरणो के कुछ छंद 
सलोने गढ़ जाये    …सुबह का सूरज 
 
होते इस परिपक्व 
दिवस में 
किरणे घुल जाती 
नस-नस में 
कदमों पर आरोप 
थकन के मढ़ जाये …सुबह का सूरज 
 
ढलती ये 
संध्या…
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Added by AVINASH S BAGDE on December 28, 2013 at 11:00pm — 27 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
एक गीत: राणा प्रताप सिंह

नया साल है चलकर आया देखो नंगे पांव

आने वाले कल में आगे देखेगा क्या गाँव

 

धधक रही भठ्ठी में

महुवा महक रहा है

धनिया की हंसुली पर

सुनरा लहक रहा है  

कारतूस की गंध

अभी तक नथुनों में है

रोजगार गारंटी अब तक

सपनों में है

हो लखीमपुर खीरी, बस्ती

या, फिर हो डुमरांव

कब तक पानी पर तैरायें

काग़ज़ वाली नांव !

 

माहू से सरसों, गेहूं को

चलो बचाएं जी

नील गाय अरहर की बाली

क्यों…

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Added by Rana Pratap Singh on December 28, 2013 at 2:30pm — 40 Comments

बग़ावत तज़ुर्बे से...

रूबरू होता हूँ मैं उससे आजकल जब भी,
देखता हूँ उसे हैरत भरी निगाहों से,
उसके चेहरे पे घिरी रहती है एक मायूसी,
और निगाहों में कोई तल्ख़ सी उदासी भी,
उसकी मानो तो, हक़ीकत यही उदासी है,
और उसके लिये हर ख्वाब महज़ धोखा है,
मुझसे कहता है वो, कि "तुम भी बदल जाओगे,
तुमसे जब ज़िन्दगी के सच का सामना होगा।"
है वो वाक़िफ़ बग़ैर-शक़ बड़े तज़ुर्बों से,
और देखा है ज़माने को भी मुझसे ज्यादा,
उसने महसूस किये…
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Added by अजय कुमार सिंह on December 19, 2013 at 12:30pm — 12 Comments

आहत माँ का दर्द

मै जीना चाहती हूँ माँ !!



कैसे जियेगी तू मेरी बच्ची ?

समय के साथ ये सब

श्रद्धांजलि और प्रदर्शनों

के आडम्बर शांत हो जायेंगे

सब कुछ भूल, लग जायेंगे

सभी अपने अपने काम में

पर तेरा जीवन नही बदलेगा !!

   

जो बच गई

जीवन तेरा और भी नर्क हो जाएगा

तू जब भी निकलेगी घर से

तेरी तरफ उठेंगी सौकड़ों आँखे  

तू भूलना भी चाहेगी तो

दिखा – दिखा उंगुली    

लोग तुझे भूलने नही देंगे

जानना चाहेंगे सभी ये कि  

कैसे हुआ ये…

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Added by Meena Pathak on December 16, 2013 at 7:00pm — 36 Comments

ग़ज़ल - इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या - अभिनव अरुण्

ग़ज़ल – २१२२ १२१२ २२

इश्क़ न हो तो ये जहां भी क्या ,

गुलसितां क्या है कहकशां भी क्या |

पीर पिछले जनम के आशिक़ थे ,

यूँ ख़ुदा होता मेहरबां भी क्या |

औघड़ी फांक ले मसानों की ,

देख फिर ज़ीस्त का गुमां भी क्या |

बेल बूटे खिले हैं खंडर में ,

खूब पुरखों का है निशाँ भी क्या |

ख़ुशबू लोबान की हवा में है ,

ख़त्म हो जायेंगा धुआँ भी क्या |

माँ का आँचल जहां वहीँ जन्नत ,

ये जमीं क्या…

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Added by Abhinav Arun on December 16, 2013 at 3:30pm — 22 Comments

हाथी हाथ से नहीं ठेला जाता (लघुकथा)

''मिश्रा जी, बेटी का बाप दुनिया का सबसे लाचार इंसान होता है. आपको कोई कमी नहीं, थोड़ी कृपा करें, मेरा उद्धार कर दें. बेटी सबकी होती है.' कहते-कहते दिवाकर जी रूआंसे हो गए । मिश्रा जी का दिल पसीज गया ।

अगले वर्ष घटक द्वार पर आए तो दिवाकर जी कह रहे थे

''अजी लड़के में क्‍या गुण नहीं है, सरकारी नौकर है. ठीक है हमें कुछ नहीं चाहिए, पर स्‍टेटस भी तो मेनटेन करना है. हाथी हाथ से थोड़े ना ठेला जाता है. चलिए 18 लाख में आपके लिए कनसिडर कर देते हैं और बरात का खर्चा-पानी दे दीजिएगा,…

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Added by राजेश 'मृदु' on December 16, 2013 at 1:30pm — 24 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल - आसमानों को संविधान भी क्या // --सौरभ

मिसरों का वज़न - २१२२  १२१२  ११२/२२

 

रौशनी का भला बखान भी क्या !

दीप का लीजिये बयान भी, क्या.. ?!

 

वो बड़े लोग हैं, ज़रा तो समझ--  …

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Added by Saurabh Pandey on December 16, 2013 at 11:00am — 54 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
फिर मिलेगा हमें वो मान भी क्या(ग़ज़ल)

2122 -1212- 112

कट ही जाये अगर ज़बान भी क्या

फिर मिलेगा हमें वो मान भी क्या

 

आदमीयत के मोल जो मिली हो

दोस्तो ऐसी कोई शान भी क्या

 

मेरे पैरों में आज पंख लगे

अब ज़मीं क्या ये आसमान भी क्या

 

छोड दें गर ज़मीन अपने लिये

ऐसे सपनों की फिर उड़ान भी क्या

 

और के काम आ सके न कभी

ऐसा इंसान का है ज्ञान भी क्या

 

भाग के गर मुसीबतों से कहीं

बच ही जाये तो ऐसी जान भी…

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Added by शिज्जु "शकूर" on December 16, 2013 at 10:00am — 40 Comments

ठिठुरता मन........

रात का दूसरा पहर 

दूर तक पसरा सन्नाटा और

गहरा कोहरा

टिमटिमाती स्ट्रीटलाइट

जो कोहरे के दम से

अपना दम खो चुकी है लगभग

कितनी सर्द लेहर लगती है

जैसे कोहरे की प्रेमिका

ठंडी हवा बन गीत गाती हो

झूम जाती हो

कभी कभी हल्के से

कोहरे को अपनी बाहों में ले

आगे बढ़ जाया करती

पर कोहरा नकचढ़ा बन वापस

अपनी जगह आ बैठता

ज़िद्दी कोहरा प्रेम से परे

बस अपने काम का मारा

सर्द रात में खुद का साम्राज्य

जमाये है हर…

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Added by Priyanka singh on December 11, 2013 at 10:00pm — 41 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ढूँढो कहावतें ||दोहे||

कष्ट सहे जितने यहाँ,डाल समय की धूल|

अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||

 

विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|

कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||

 

कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|

चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||

 

जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|

फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन|| 

 

सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|

अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||

  …

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Added by rajesh kumari on December 11, 2013 at 2:30pm — 33 Comments

कागज़ पर अंकित नक्शा नही है देश...

उन्हें विरासत में मिली है सीख

कि देश एक नक्शा है कागज़ का

चार फोल्ड कर लो

तो रुमाल बन कर जेब में आ जाये

देश का सारा खजाना

उनके बटुवे में है

तभी तो कितनी फूली दीखती उनकी जेब

इसीलिए वे करते घोषणाएं

कि हमने तुम पर

उन लोगों के ज़रिये

खूब लुटाये पैसे

मुठ्ठियाँ भर-भर के



विडम्बना ये कि अविवेकी हम

पहचान नही पाए असली दाता को

उन्हें नाज़ है कि

त्याग और बलिदान का

सर्वाधिकार उनके पास सुरक्षित…

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Added by anwar suhail on December 10, 2013 at 9:30pm — 9 Comments

मिन्नत (लघु कथा)

'साहेब हमरी किडनी ख़राब है  I  इलाजु चलि रहा है I  उनकी जगह हमरे लरिकऊ का नौकरी तो दिहेव मालिक पर अकेलु लरिका नोडा (नॉएडा) चला जाई तो हमार देखभाल कौन करी I  इसै हियें लखनऊ माँ जगह दै देव साहेब , नहीं तो ई बुढ़िया मरि जाई I

'हाँ साहेब !" बेटे ने भी हाथ जोड़कर मिन्नत की I

' ठीक है, तुम लोग बाहर जाओ I  मै कुछ करता हूँ  I" 

माँ-बेटे बाहर चले गए I 'थोड़ी देर में  माँ को बाहर छोड़ कर बेटा फिर अन्दर आया I

'येस?' - साहेब ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा I

'सर,  मेरी माँ…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2013 at 1:00pm — 32 Comments

वह भीगा आँचल .... (विजय निकोर)

वह भीगा आँचल

 

 

धूप

कल नहीं तो परसों, शायद

फिर आ जाएगी

अलगनी पर लटक रहे कपड़ों की सारी

भीगी सलवटें भी शायद सूख ही जाएँगी

पर तुम्हारा भीगा आँचल

और तुम अकेले में ...

 

उफ़  ...

 

तुमने न सही कुछ न कहा

थरथराते मौन ने कहा तो था

यह बर्फ़ीला फ़ैसला

दर्दीला

तुम्हारा न था

फिर क्यूँ तुम्हारी सुबकती कसक

कबूल कर जाती है…

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Added by vijay nikore on December 10, 2013 at 9:00am — 31 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : कीमत (गणेश जी बागी)

शास्त्री जी बहुत खुश हैं, नए घर का आज गृह प्रवेश समारोह है ।  विदेश से कंस्ट्रक्शन मैनेजमेंट की पढ़ाई पूर्ण कर इकलौता बेटा भी कल घर पहुँच गया था ।

"पापा, गेस्ट आ गये हैं आप कहें तो डिनर स्टार्ट करवा दूँ"

"नहीं बेटा, कुछ विशिष्ट अतिथियों का मैं इन्तजार कर रहा हूँ पहले वो आ जाएँ फिर भोजन प्रारम्भ कराते हैं" शास्त्री जी ने बेटे को समझाया ।

"विशिष्ट अतिथि कौन पापा ?"

"इस घर को अपने श्रम और पसीने से बनाने वाले मिस्त्री और मजदूर"

"उफ्फ ! आप…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 9, 2013 at 9:31pm — 43 Comments

गर्भाधान (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

“पापा ! टीचर ने कहा है कि फीस जमा करवा दो, नहीं तो इस बार नाम अवश्य काट दिया जाएगा।"
“अजी सुनते हो ! बनिया आज फिर पैसे मांगने आया था।”
“अरे बेटा ! कई दिन हो गए दवाई खत्म हुए, अब तो दर्द बहुत बढ़ता जा रहा है, आज तो दवाई ला दो।”

ये सभी आवाज़ें उसके मस्तिष्क पर हथोड़े की भाँति चोट कर रही थीँ।
मगर उसके दिल में एक नई कविता का खाका जन्म ले रहा था।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by Ravi Prabhakar on December 9, 2013 at 7:00pm — 41 Comments

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ

मैं रात का एक टुकड़ा हूँ

आवारा

भटक गया हूँ शहर की गलियारों में.

जिंदगी सिसक रही है जहाँ

दम घोटूँ

एक बच्चा हँसता हुआ निकलता है

बेफ़िक्र, अपने नाश्ते की तलाश में.

सहमा रह जाता हूँ मैं मटमैले कमरों में.

(2)

मैं क्या करूँ

सूरज निकलता है

भयभीत होता हूँ पतिव्रताओं की आरती से

मुँह छिपाये मैं छिप जाता हूँ

कभी धन्ना सेठों की तिज़ोरी में तो

कभी किसी सन्नारी के गजरों में.…

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Added by coontee mukerji on December 9, 2013 at 6:07pm — 21 Comments

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