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September 2013 Blog Posts (279)

मेरी नज़रों में तो वो खरगोश ही था मोतवर

मेरी नज़रों में तो वो खरगोश ही था मोतवर

जिसने बाज़ी हारकर कछुए को कर डाला अमर

यूं हुई पलकों से रुखसत नींद कि लौटी नहीं

लाख ही उसको बुलाते रह गए हम रातभर

इश्क़ का जब-जब हुआ दिल हद से ज़्यादा बेक़रार

हुस्न ने तब- तब कहा कि और थोड़ा सब्र कर

ऐ क़लमकारो वो अह्सासे मुहब्बत भी लिखो

माँ की छाती मुंह में जब लेता है बच्चा दौड़कर

क़ायदे क़ानून के फंदे हैं बस मेरे लिए

उसने तो गठरी बनाकर रख दिया है ताक…

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Added by Sushil Thakur on September 7, 2013 at 2:30pm — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नक्श ढूँढे वो मेरा हस्ती मिटाने के बाद

वज्न: 2122 1122 1122 22/112 

कोई याद अब करे है मुझको भुलाने के बाद

नक्श ढूँढे वो मेरा हस्ती मिटाने के बाद

हो गया गर्क़ सफीना मेरा इक तूफां में

चुप है अब मौजे-तलातुम यूँ डुबाने के बाद

लगती है बोली परस्तिश को अकीदत की यहाँ

अब यकीं लुटता है बाज़ार में आने के बाद

रोये क्यूं अपनी तबाही पे अब ऐ नादां तू

खुद मुदावे को गया जान से जाने के बाद

ऐ बशर अब न पशेमां हो नई सांस ले यूँ

इक नई…

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Added by शिज्जु "शकूर" on September 7, 2013 at 10:59am — 28 Comments

!!! सुख सभी तो चाहते हैं !!!

!!! सुख सभी तो चाहते हैं !!!

गजल बह्र - 2 1 2 2 2 1 2 2

प्रेम  पूंजी  बांटते  हैं।

सुख सभी तो चाहते हैं।

दुःख अपना कौन बांटे,

साये पल्ला झाड़ते हैं।

सुख बड़े चंचल भटक कर,

पल में घर से भागते हैं।

रोशनी जब भी निकलती,

चांद - सूरज  ताकते  हैं।

फिर कभी उलझन न होती,

सांझ सुख मिल बांटते हैं।

चांदनी जब तरू में उलझी,

वृक्ष  साया  शापते  हैं।

गर किसी ने की…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 7, 2013 at 9:26am — 18 Comments

!!! आत्मा रोज सफल है !!!

!!! आत्मा रोज सफल है !!!

बह्र- 2122 1122 1122 112

दीप तन तेल पिए, गर्व बढ़ाये न बने।

ज्ञान बाती से मिले, तेज बुझाये न बने।।

रोशनी खूब बढ़े, रात छिपाती मुख को,

भोर में भानु उदय, आंख मिलाये न बने।।

हम सफर राह में, मिलते हैं बिछड़ जाते हैं।

छोड़ते दर्द दिलों में, ये मिटाये न बने।।

तेल औ दीप मिले, तर्क खड़ा मौन रहे,

तेज लौ मस्त जले, अर्श बताये न बने।।

आत्मा रोज सफल है, सुविचारक बनकर।

जिन्दगी आज…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 7, 2013 at 9:15am — 14 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६७ (तरुणावस्था-१४): किताबों के संग

(आज से करीब ३१ साल पहले)

आज का दिन किताबों के साथ बीत गया. इतनी जल्दी मानो मेरी गति घड़ी के काँटों से भी तीव्रतर थी. शरतचंद्र की उपन्यासिका ‘बिराज बहु’ को आद्योपांत पढ़ने के दौरान मैं समय की हिमावर्त सडकों पे असहाय फिसलता गया. इस कृति ने मेरे मर्म को छू लिया था.

 

बिराजबहू उपन्यास की मुख्य पात्रा है जिसे लेखक ने अपनी जीवंत लेखनी के माध्यम से अत्यंत सशक्त और स्वाभाविक ढांचे में ढाला है. पात्रों के अंतर्संघर्ष में मुझे अपने ही समाज की असंगतियों, मानवीय भावनाओं,…

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Added by राज़ नवादवी on September 7, 2013 at 7:00am — No Comments

दोहे

पूर्वाग्रह तो छोडिये मिलिए स्व बिसराय

मुख धरे डली नून की मीठो स्वाद न पाय

अनुशासित होकर रहे पतंग उड़े अकास

भागी फिरे कुरंग सम डोर पिया के पास

सिकुड़े गलियारे सहन ऊँची मन दहलीज

गलती माली की रही  कैसे बोये बीज

कब तक परछाई चले पूछ न कितनी दूर

धूप चढ़े सिर बावरी छाया थक कर चूर 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by vandana on September 7, 2013 at 7:00am — 12 Comments

तुझको देखूं, तुझे चाहूँ, तुझी से प्यार करूँ...

तुझको देखूं, तुझे चाहूँ, तुझी से प्यार करूँ । 

तेरे सिवा न किसी पर भी ऐतबार करूँ ॥ 

तू न आई है, ना आएगी, मेरे मिलने को । 

ये जानकर भी, मै बस तेरा इंतज़ार करूँ ॥

तू पशेमा नहीं होती है, बेवफा होकर । 

मै  वफ़ा करके भी, अपने को शर्मसार करूँ ॥ 

तेरी रातें तो महकती हैं गुलाबों की तरह । 

अपनी रातों को बता कैसे लालाज़ार करूँ ॥ 

नींद उड़ जाए तेरी, जब भी मेरा नाम आये । 

मै  चाहता हूँ तुझे, कुछ  ऐसे बेक़रार…

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Added by Anil Chauhan '' Veer" on September 7, 2013 at 6:50am — 17 Comments

शायद उनको प्यार आ जाए

पहरों उन के साथ बिताये ,

दिल की बात नहीं कह पाए ।

तेरी खिड़की तनिक खुली है ,

शायद धूप निकल ही आये ।

इसी आस पर जीते हैं हम ,

शायद उनको प्यार आ जाए ।

दिल की बात कहाँ तक माने ,

दिल तो हर शै पर आ जाए ।

आज खुले रखो दरवाजे,

आज कोई शायद आ जाए ।

उन के अफ़साने में सुनना ,

शायद मेरा नाम आ जाए ।।

मुझको खंजर मारने वाले ,

तुझको मेरी उम्र लग जाए ।

आते जाते मिल जाते हो…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on September 6, 2013 at 11:30pm — 13 Comments

दोहा २ (जीवन चक्र )

समय बड़ा बलवान है ,देता सबको सीख !

पड़ जाती है माँगनी ,राजा को भी भीख !!१

अपना अपना बोलकर ,भरते अपना पेट !

मानवता भी चढ़ गयी ,यहाँ स्वार्थ की भेंट !!२

जहर उगलते है यहाँ ,आपस में ही लोग!

फिर कैसे सौहार्द हो ,कैसे जाये रोग !!३

अज्ञानी देने लगा ,जबसे सबको ज्ञान !

ऐसे मूर्ख समाज का ,कैसे हो कल्यान !!४

ऊँच नींच कोई नहीं ,सुन ईश्वर पैगाम !

बड़े प्रेम से खा गए ,सबरी के फल राम !!५

पैसे से होती यहाँ…

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Added by ram shiromani pathak on September 6, 2013 at 9:00pm — 28 Comments

ओ तालिबान !

जिसने जाना नही इस्लाम 

वो है दरिंदा 

वो है तालिबान...



सदियों से खड़े थे चुपचाप 

बामियान में बुद्ध 

उसे क्यों ध्वंस किया तालिबान 



इस्लाम भी नही बदल पाया तुम्हे 

ओ तालिबान 

ले ली तुम्हारे विचारों ने 

सुष्मिता बेनर्जी की जान....



कैसा है तुम्हारी व्यवस्था 

ओ तालिबान!

जिसमे…

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Added by anwar suhail on September 6, 2013 at 8:14pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आज रूपये का ये हाल बहुत हुआ

२ १ २ २     २ १  २ १    १ २ १ २

.

छोडो अपनी ढाई चाल बहुत हुआ

खून में आया उबाल बहुत हुआ

 

आम जनता की आवाज दबे नहीं

देश में लाये भूचाल बहुत हुआ  …

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Added by rajesh kumari on September 6, 2013 at 7:30pm — 20 Comments

सोये वीरों को जगाना चाहते हैं इसलिए "ग़ज़ल"

सोये वीरों को जगाना चाहते हैं इसलिए

वीर रस के गीत गाना चाहते हैं इसलिए

 

माँ बहन बेटी की इज्ज़त से न खेले अब कोई

इक कड़ा कानून लाना चाहते हैं इसलिए

 

मर न जाए कोई भी आदम दवा बिन भूख से

हम गरीबी को हटाना चाहते हैं इसलिए

 

हम विरोधी पश्चिमी तहजीब के हरदम रहे

संस्कृति अपनी बचाना चाहते हैं इसलिए

 

रक्त की नदियाँ बहें ना देश में दंगों से अब

रक्त में अब हम नहाना चाहते हैं इसलिए

 

राह में…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 6, 2013 at 5:26pm — 20 Comments

भर देती सन्देह, खोपड़ी रविकर ठनकी-


कमा कमा परदेश में, पिया भुलाते नेह |
सुबह-सवेरे ज्वर कमा, तप्त रात भर देह |


तप्त रात भर देह, मेह रिमझिम सावन की |
भर देती सन्देह, खोपड़ी रविकर ठनकी |


भूल गए क्यूँ गेह, शीघ्र आ जाओ बलमा |
किंवा लाये सौत, हमें देते हो चकमा ||

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on September 6, 2013 at 2:54pm — 10 Comments

लिखो ना

स्‍वाति सी कोई कथा-कहानी

चातक का इक शहर, लिखो ना

कसमस करती

इक अंगड़ाई

गुनगुन गाता

भ्रमर, लिखो ना

चैताली वो रात सुहानी

शारद-शारद

डगर, लिखो ना

किसी कास की शुभ्र हँसी में

होती कैसी लहर, लिखो ना

इक देहाती

कोई दुपहरी

पीपल की

कुछ सरर, लिखो ना

शीशे सा वो

थिरा-थिरा जल

अनमुन बहती

नहर, लिखो ना

पारिजात की भीनी खुशबू

धिमिद धिमिद वो…

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Added by राजेश 'मृदु' on September 6, 2013 at 11:33am — 18 Comments

तुमने हारा है मुझपे दिल अपना...

तेरे चेहरे में वो खुमारी है, रात करवट बदल गुज़ारी  है ।

तुमने हारा  है मुझपे दिल अपना,हमने भी तुमपे नींद हारी है ॥

 

तुम भी सोते नहीं हो रातों को,

हम भी बस करवटें बदलते हैं ।

तुम शमा बन के उधर जलते हो,…

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Added by Anil Chauhan '' Veer" on September 6, 2013 at 6:30am — 25 Comments

पहचान लिए जाने का डर

कोई तोड़ दे

उसका सर 

जोर से

मार कर पत्थर 

हो जाए ज़ख़्मी वो 

 

कोई दे उसे 

चीख-चीख कर

गालियाँ बेशुमार 

कि फट जाएँ उसके कान के परदे 

घर या दफ्तर जाते समय 

टकरा जाए उसकी गाडी 

किसी पेड़ या खम्भे से 

चकनाचूर हो जाए उसकी गाडी 

और अस्पताल के हड्डी विभाग में 

पलस्तर बंधी उसकी देह गंधाये...

और एक दिन 

सुनने में आया 

कि किसी ने उसके सर पर

....मार दिया…

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Added by anwar suhail on September 5, 2013 at 11:00pm — 5 Comments

देख तिरंगा लहराता

देख तिरंगा लहराता

मन उठा, भ्रमर सा जागा है

 

पुलकित सूरज की किरनें

रंग तीन यह जो चमकें

इस मंद हवा की लहरों पर

मन झूम-झूमकर गाता है

 

सोंधी खुशबू माटी की

अलकें खिलतीं फूलों की

खेतों में लहराती फसलें

अब उमग-उमग मन जाता है

 

जीवन मेरा धन्य हुआ

भारत में जो जन्म हुआ

ये प्राण निछावर हैं इस पर

यह धरती अपनी माता है

.

बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

Added by बृजेश नीरज on September 5, 2013 at 10:30pm — 32 Comments

मदिरा सवैया - एक छंद

प्रेम कि बांसुरि बाजि रही  पिय के मन को अकुलाय रही 

भोर समान खिलै मुखि चन्द चकोर पिया को बुलाय रही 

रीझि गया मन लाजि गया तन सांझ क़ि बात सुनाय रही 

रीति क़ि प्रीति बनी बिगरी पर प्रीति की  रीति बताय रही     

आशीष श्रीवास्तव ( सागर सुमन ) 

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Ashish Srivastava on September 5, 2013 at 10:00pm — 8 Comments

एक कोमल एहसास

याद है !!

जब तुम्हारा जन्म हुआ था

एक नर्म तौलिये में लपेट

मुझे तुम्हारी एक

झलक दिखलाई थी

तुम्हे देखते ही

भूल गयी थी दर्द सारा

खों गयी थी

गुलाब की पंखुड़ियों जैसी सूरत में

कितना प्यारा था स्पर्श तुम्हारा

नर्म

बिलकुल रुई के फाहों जैसा

खुश थी छू के तुम्हे



तुम मद मस्त नींद में

लग रहा था

लम्बा सफ़र तय किया है तुमने

कितने दिनों के थके हो जैसे

 

जब तुमने

आँखें खोली पहली बार

इस नयी दुनिया को देखने की…

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Added by Meena Pathak on September 5, 2013 at 8:27pm — 47 Comments

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