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August 2014 Blog Posts (156)


सदस्य कार्यकारिणी
मेज़ के उपर सब कुछ शांत है , ( अतुकांत ) गिरिराज भंडारी

मेज़ के उपर सब कुछ शांत है

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बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश

ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी

करीने से लगी कुर्सियाँ

 

अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल

सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ

सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके

सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते 

सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर

सामान्यतया क़रीब से देखने में

लेकिन ,

जो दूर बैठा है उस मेज से

देख सकता है…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 3, 2014 at 1:30pm — 20 Comments

नव-निर्माण..(लघुकथा)

सुरेश रात-दिन कितनी भी शरीर-तोड़ मेहनत कर ले, अपनी पत्नि रजनी और दोनों बच्चों के खर्च के साथ-साथ मोबाईल, मोटर-साइकिल,मकान का किराया सब कुछ वहन नहीं कर सकता. अब पेट काटकर धीरे-धीरे अपना घर बनाना शुरू तो कर दिया पर कभी सीमेंट ख़त्म, तो कभी लोहा.

लेकिन.. जब से सुरेश से कहीं ज्यादा कमाने वाले मित्र, अशोक का उसके यहाँ आना-जाना शुरू हुआ है, तब से घर का काम दिन दोगुना -रात चौगुना चल रहा है. आजकल तो सुरेश अपने घर के बंद दरवाजे के बाहर अशोक के जूतों को देख, अपने नए बन रहे घर कि ओर चला…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on August 3, 2014 at 12:30pm — 30 Comments

‘रेप’ को जोकर सरीखों ने कहा जब बचपना - ग़ज़ल

2122    2122    2122    212

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एक   सरकस   सी   हमारी   आज  संसद  हो गयी

लोक हित की इक नदी जम आज हिमनद हो गयी

**

जुगनुओं से  खो  गये  लीडर  न  जाने फिर कहाँ

मसखरों  की आज  इसमें  खूब  आमद  हो गयी

**

‘रेप’ को  जोकर  सरीखों ने  कहा  जब  बचपना

जुल्म  की  जननी खुशी से  और गदगद हो गयी

**

दे  रहे  ऐसे  बयाँ,  जो   जुल्म   की   तारीफ  है

क्योंकि  सुर्खी  लीडरों का आज मकसद हो गयी

**

जुल्म  की  सरहद…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 3, 2014 at 9:00am — 26 Comments

कुक्कुर

" बाऊ , आज त पेट भर खाए के मिली न " लखुआ बहुत खुश था । आज ठकुराने में एक शादी थी और लखुआ का पूरा परिवार पहुँच गया था । पूरा दुआर बिजली बत्ती से जगमग कर रहा था और चारो तरफ पकवानों की सुगंध फैली हुई थी ।

" दुर , दुर , अरे भगावा ए कुक्कुर के इहाँ से " , चच्चा चिल्लाये और दो तीन आदमी कुत्ते को भगाने दौड़ पड़े । लखुआ भी डर के किनारे दुबक गया । तब तक उन लोगों की नज़र पड़ गयी इन पर " ऐ , चल भाग इहाँ से , अबहीं त घराती , बराती खईहैं , बाद में एहर अईहा तू लोगन " । फिर याद आया कि पत्तल भी तो उठवाना…

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Added by विनय कुमार on August 3, 2014 at 3:34am — 28 Comments

मेरी अमरनाथ यात्रा के 2014

यात्रा का प्रथम चरण---गहमर से वाराणसी

मैं बाबा बरफानी की यात्रा का मन बना चुका था। परिवार से इजाजत और दोस्‍तो की सलाह के बाद यह इच्‍छा और बलवती हो गयी। मैने मन की सुनते हुए 23 जुलाई की तिथी निश्‍चित किया और अपने काम में लग गया। घर से महज 200 मीटर की दूरी पर भी अारक्षण केन्‍द्र होने के वावजूद मैं आरक्षण नहीं करा पाया आैर न ही किसी प्रकार की तैयारी कर रहा था।धीरे धीरे 18 जुलाई आ गया तब जा कर मैने अपना आरक्षण कराया, इस दौरान गहमर…

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Added by Akhand Gahmari on August 2, 2014 at 10:00pm — 12 Comments

नवगीत : जैसे कोई नन्हा बच्चा छूता है पानी

मेरी नज़रें तुमको छूतीं

जैसे कोई नन्हा बच्चा

छूता है पानी

 

रंग रूप से मुग्ध हुआ मन

सोच रहा है कितना अद्भुत

रेशम जैसा तन है

जो तुमको छूकर उड़ती हैं

कितना मादक उन प्रकाश की

बूँदों का यौवन है

 

रूप नदी में छप छप करते

चंचल मन को सूझ रही है

केवल शैतानी

 

पोथी पढ़कर सुख की दुख की

धीरे धीरे मन का बच्चा

ज्ञानी हो जाएगा

तन का आधे से भी ज्यादा

हिस्सा होता केवल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 2, 2014 at 8:58pm — 26 Comments

तकदीर

कभी कभी

सोचती हूँ मैं

जब हाथ भरा है लकीरों से

कुछ तो मतलब होगा इसका 

हरेक के कोई मायने होंगे

कौन कौन सी लकीर किस किस तक़दीर के नाम

यह तो बताये कोई

मुझे समझाए कोई

सुना था...

हाथों की चंद लकीरों का

यह खेल है बस तकदीरों का

अपने हाथ में लकीरें तो बहुत हैं

पर तक़दीर शायद रूठ गई है

आप ठीक कहते थे

बदल जाती हैं तकदीरें

अगर मेहनत से हाथ की लकीरें बदल दी जाएँ

इसीलिए करती हूँ…

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Added by Sarita Bhatia on August 2, 2014 at 5:00pm — 14 Comments

दोहे - मीना पाठक

होते जो बहुरूपिया, मिले न उनकी थाह |
मन में अंतरघात  है, सुर है मधुर अथाह ||

गीली लकड़ी की तरह, सुलगी वो दिन रात |
सिसक-सिसक कर जल मुई,हृदय वेदना घात ||

.

जीवन के दिन चार हैं, नेक करें कुछ काज 
अंत समय कब हो निकट,नहीं पता कल आज ||

किस्मत में जो था मिला, सर फोड़े क्यों रोय |
पूर्व जन्म का कर्म है, अब रोये क्या होय ||

मीना पाठक 
मौलिक अप्रकाशित

Added by Meena Pathak on August 2, 2014 at 3:30pm — 21 Comments

मुक्ति- बंधन //कुशवाहा //

मुक्ति- बंधन //कुशवाहा //

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पिंजरे में कैद पंछी

निहारता आसमान को

बाहर आने को बेताब

बंधन

अस्वीकार्य



दीवार को पकड

इधर उधर

झांकता

राश्ते की तलाश

आसान नही

मुक्ति/ बंधन



क्रोधित असहाय

चिल्लाता

घायल बदन / घायल आत्मा

छिपता भी तो नहीं

रिसता लहू

गवाह

जंग- ए- आजादी का



खिसियाहट झल्लाहट

बेबसी

फडफडाहट

गति देती

उड़ जाने को

जिंदगी भी तों…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 2, 2014 at 2:45pm — 6 Comments

अभागे (लघुकथा) - रवि प्रभाकर

प्रैस काफ्रेंस देर शाम तक चली। बाल श्रम उन्मूलन के तहत आजाद करवाये बाल श्रमिकों को पुलिस प्रेस के समक्ष लाई थी। फोटो खींचे गए, भाषण दिया गया और थानेदार साहिब का साक्षात्कार भी लिया गया। पत्रकार काफ्रेंस के बाद चाय नाश्ता कर अपने घर की ओर जा रहे थे तो सुबह से भूखे बैठे बाल श्रमिकों की ओर देखकर एक कांस्टेबल धीरे से थानेदार साहिब के कान में फुसफुसाया:

“साहिब! अब इन बच्चों का क्या करना हैे?”

”बड़े साहिब की बिटिया की शादी है अगले हफ्ते, कितना काम होगा वहाँ, छोड़ आयो वहीँ पे इन ससुरों…

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Added by Ravi Prabhakar on August 2, 2014 at 11:00am — 19 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही- ग़ज़ल

212/ 212/ 212/ 212

मुझको तन्हाई अक्सर बुलाती रही

बारहा पास आकर सताती रही

 

क्या कहूँ आँसुओं का सबब मैं तुझे

तल्खी तेरी ज़बाँ की रुलाती रही

 

रात भर मैं हवा के मुकाबिल खड़ा

लौ जलाता रहा वो बुझाती रही            

 

आइना अक्स मेरा बदलता रहा

ज़िन्दगी खुद से मुझको छुपाती रही

 

मैं न समझा कभी सच यही था मगर

ये ख़िज़ाँ राह मेरी बनाती रही   

 

बादबाँ खुल गये चल पड़ी नाव भी

मेरी…

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Added by शिज्जु "शकूर" on August 1, 2014 at 11:55pm — 23 Comments

ग़ज़ल

मालूम है कि सांप पिटारे में बंद है
फिर भी वॊ डर रहा है क्यूँ कि अक्लमंद है

.

ये रंग रूप, नखरे,अदा तौरे गुफ्तगू
तेरी हरेक बात ही मुझको पसंद है

.

ये दिल भी एक लय में धड़कता है दोस्तो
सांसो का आना जाना भी क्या खूब छंद है

.

सोचा था चंद पल में ही छू लूँगा बाम को
पर हश्र ये है हाथ में टूटी कमंद है

.

दुश्वारियों से जूझते गुजरी है ज़िन्दगी
अज्ञात फिर भी हौसला अपना बुलंद है

.

मौलिक एवं अप्रकाशित.

Added by Ajay Agyat on August 1, 2014 at 8:30pm — 10 Comments

घनाक्षरी

नित्य प्रति दिनकर,संग आके किरनों के,
बड़े प्यार ही से सारे ,जग को जगाता है।
तप करता है जब,खुद ही को जला जला,
सारी धरती को रवि,तभी तो तपाता है।
सुप्त हुए सब अंग,काले काले सब रंग,
लाके साथ सप्त रंग,जग को हँसाता है।
दिन रात आते जाते,भ्रम अपना बनाते,
सूरज तो कभी कहीं,आता है न जाता है
सीमाहरि शर्मा 1.08.2014
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by seemahari sharma on August 1, 2014 at 7:00pm — 14 Comments

प्रेम

दृष्टि   मिलन  के  प्रथम पर्व में

दृप्त    वासना   नभ   छू   लेती

पागलमन   को   बहलाता   सा

जग  कहता   नैसर्गिक   सुख है I

 

क्या  निसर्ग  सम्भूत  विश्व  में

क्या स्वाभाविक और सरल क्या

वाग्जाल   के    छिन्न   आवरण

में     मनुष्य   की   दुर्बलता    है I

 

बुद्धि   दया   की   भीख मांगती

ह्रदय    उपेक्षा    से    हंस    देता

मानव !    तेरी      दुर्बलता    का

इस    जग   में   उपचार   नहीं …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 1, 2014 at 4:00pm — 21 Comments

गंगा की मछली (लघु कथा) // शुभ्रांशु पाण्डेय

“खाना… पानी सब देने के बाद भी जब देखो मुँह उतरा ही रहता है.” तुनकते हुये बहु ने सास के सामने टेबल पर खाने की प्लेट पटक दी...

सास ने अपने बेटे को आंखो की पनियायी कोर से देखा....

वो तो तन्मयता से टीवी पर गंगा में आक्सीजन की कमी से मर रही मछलियों के बारे मे न्यूज़ देख रहा था.

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(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on August 1, 2014 at 9:30am — 26 Comments

दोहे // प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //

दोहे // प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //

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माँ वंदन नित है सदा, किरपा दया निधान

अज्ञानी मै बहुत बड़ा, दे दो मुझको ज्ञान

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क्षीर सागर शयन किये, लक्ष्मी पति हरिनाथ

सुरमुनि यशोगान करें, जोड़े दोनों हाथ

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नवरात्री की अष्टमी , देवी पूजो आय

चरण शरण जगदम्बिका, घर घर बजे बधाय

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आशीष आपको सदा,…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 1, 2014 at 9:17am — 23 Comments

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