“अबे ये बकरी किसकी बंधी हुई है यहाँ ?”
“ज़मींदार साब, ये बदरू की बकरी है, खेत में घुस कर नुस्कान कर रई थी तो पकड़ लाये।“
“अच्छा किया, इन सालों को औकात भूल गई है अपनी।“
“सच कहा सरकार, ऊपर से सरकार ने इन लोगों का और भी दिमाग खराब कर रखा है।“
“तो चढायो आज हांडी पर इस ससुरी बकरिया को।“
“मगर सरकार बदरू तो जात का......”
“अबे मूरख आदमी, जात-पात तो इंसानों की होती है जानवरों की नहीं।”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on August 6, 2014 at 11:00am — 13 Comments
मेरे शहर का मौसम !
Added by AVINASH S BAGDE on August 5, 2014 at 3:30pm — 19 Comments
निगरानी टीम रघुआ को गिरफ्तार कर अपने साथ ले गई, दरअसल वो सब्जी बाज़ार मे अवैध बिजली वितरण का धंधा स्थानीय कर्मचारियों और अधिकारियों की मिलीभगत से चला रहा था और प्रतिदिन प्रति बल्ब २० रुपये की वसूली सब्जी दुकानदारों से करता था.
लेकिन दूसरे ही दिन वो पुलिस हिरासत से वापस आ गया. कुछ विशेष नही बदला, सब कुछ पहले की तरह ही चलने लगा, बस…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 5, 2014 at 3:09pm — 24 Comments
देश की सीमा पर बैठे उन देश के पहरेदारों को ।
बहनो ने राखी भेजी है भारत की आँख के तारों को ।
प्यार भेजतीं हैं तुमको अनमोल पर्व इस पावन का ।
तुम देश की रक्षा करते हो ये धागा रक्षा बंधन का ।
ये डोर रेशमी डोर नही के ताकत है बहन के भाई की ।
जो देश की सेवा हित उठती शोभा है उसी कलाई की ।
जहँ निडर सुरक्षित रह पायें तुमसे वो वतन मांगती हैं ।
इस राखी के बदले बहनें रक्षा का वचन मांगती हैं ।
इस देश की सारी बहनों को हे…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on August 5, 2014 at 11:30am — 1 Comment
एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं सुख-दुःख,
फिर क्यों लगता है -
-सापेक्ष सुख के नहले पर दहला सा दुःख ?
- सुख मानो ऊंट के मुहं में जीरा-सा ?
आखिर क्यों नहीं हम रख पाते निरपेक्ष भाव ?
प्यार-नफ़रत तो हैं सामान्य मानवी प्रवृत्ति !
फिर भी -
प्यार पर नफ़रत लगती सेर पर सवा सेर ,
प्यार कितना भी मिले दाल में नमक-सा लगता !
थोड़ी भी नफ़रत पहाड़ सी क्यों दिखती है आखिर ?
होते हैं…
Added by savitamishra on August 5, 2014 at 10:01am — 38 Comments
अंधेरों को मिटाने का इरादा हम भी रखते हैं
कि हम जुगनू हैं थोडा सा उजाला हम भी रखते हैं
अगर मौका मिला हमको ज़माने को दिखा देंगे
हवा का रुख बदलने का कलेज़ा हम भी रखते हैं
हमेशा खामियां ही मत दिखाओ आइना बन कर
सुनो अच्छाइयों का इक खज़ाना हम भी रखते हैं
महकती है फिजायें भी चहक़ते हैं परिंदे भी
कि अपने घर में छोटा सा बगीचा हम भी रखते…
Added by Ajay Agyat on August 5, 2014 at 7:00am — 11 Comments
उन्मीदों से भी ज़्यादा, बहुत ज़्यादा मिल गया है
ख्वाहिशों का मेरी बे-नूर चेहरा खिल गया है
वो दौलतमंद है इक सिक्के की क़ीमत मालूम क्या उसको
कि इक सिक्के में इस बच्चे का बस्ता सिल गया है
ना चप्पल पाव में न सर पे कोई टोपी भी थी उसके
सुबह इस ठंड में जो बच्चा मज़ूरी को निकल गया है
मुफ़लिसी से नहीं अपनी अमीरी से बहुत लाचार था
वो बदन नंगे जो चौराहे पे , बुत में ढल गया है
वो सवारी बैठाने से पहले ही , किराया बोल देता…
ContinueAdded by ajay sharma on August 4, 2014 at 10:30pm — 7 Comments
रंग बिरंगी पुतलियाँ, नयनन रही लुभाय
चित्त्तेरे भगवान् की, देखो महिमा गाय
पुतलियाँ निष्काम सदा, प्रेम से सराबोर
मानव फिर क्यों बन गया, कपटी लम्पट चोर
कठपुतलियाँ प्राण रहित, मानव में है जान
इनको नचाता मानव, मानव को भगवान
निरख निरख ये पुतलियाँ, मन है भाव विहोर
हाथों मेरे डोर है , मेरी प्रभु की ओर
रंग बिरंगी पुतलियाँ, मन को खूब लुभाय
नशा विहीन समाज हो , नाच नाच कह जाय
कठपुतले बन तो गये, पाकर तेरा रंग …
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 4, 2014 at 4:00pm — 10 Comments
दुश्मन से मिलकर रहता है,
बस मीठी बातें करता है,
वो शख़्स मुनाफिक़* लगता है।
माने तो दिलजोई करना,
रूठे तो मनमानी करना,
है लाज़िम झगड़ा भी करना।
मन में जो आये कह देना,
दिल में पर मैल नहीं रखना,
ये ही मोमिन# का है गहना।
छल, पाप, कपट, मक्कारी है,
माना हर सू बदकारी है,
पर नेकी सब से भारी…
Added by इमरान खान on August 4, 2014 at 2:04pm — 4 Comments
कभी झेली भी है शर्मिन्दगी क्या
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1222 1222 122
कभी खुद से शिकायत भी हुई क्या
कभी झेली भी है शर्मिन्दगी क्या
बहुत बाहोश खोजे , मिल न पाये
मिला देगी हमें अब बेखुदी क्या
ये क़िस्सा, दर्द- आँसू से बना है
समझ लेगी इसे आवारगी क्या
अगर सीने में सादा दिल है ज़िन्दा
बनावट बाहरी क्या, सादगी क्या
ख़ुदा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 1:30pm — 30 Comments
मेघ निबह
श्याम श्वेत निर्मोही
भ्रम फैलाये
उड़ती घटा छाये
सूर्य आछन्न
दुविधा में फंसाए
काम बढाए
अकस्मात बरखा
बाहर डाले
कपड़े निकालते
फिर डालते
गृहलक्ष्मी दुचित्ता
क्रोध बढ़ाए
उलझौआ पयोद
वक्त कीमती
दुरुपयोग होता
वक्त भागता
सुना था कभी कही
खुद पे बीती
खीझ दुघडिया पे
भुनभुनाती
काम है निपटाने
प्रावृट् बदरा
तुझे सूझे नौटंकी
घुंघट ओढ़
हुई तू तो बावरी|
तंग गृहणी
मेघ निरंग निस्तारा
भ्रान्ति…
Added by savitamishra on August 4, 2014 at 12:21pm — 19 Comments
ताव नित देते रहे..
ज्ञान के वटराज जिनको छॉंव नित देते रहे।
आरियों के वार से वो घाव नित देते रहे।।
कालिदासों को वही विद्योत्मा कैसे मिले,
पंडितों के ज्ञान को वो दॉंव नित देते रहे।
शब्द मुखरित सोच कुंठित कर्म कौरव का वरे,
धर्म के उत्कर्ष में बस ताव नित देते रहे।
चाहना की झाड़ में फॅस जब मलय वन त्यागते,
वक्त-सौरभ-धैर्य-साहस ठॉव नित देते रहे।
शारदे साहित्य व्यंजन में जगह कब द्वेष की,
मन-विषय-विष वासना…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2014 at 8:20am — 6 Comments
बड़ा ख़राब जमाना आ गया है , अब घर में विधर्मी नौकर रख लिया है , कौन खायेगा , पियेगा उसके घर । राधा ऊँचे स्वर में अपने पड़ोसन को बता रही थी ।
" अरे हमसे कहा होता , हमने दिला दिया होता नौकर , कोई कमी है इनकी " । पड़ोसन ने भी हाँ में हाँ मिलायी ।
शाम को बेटी से बात करते हुई राधा ने पूछा " अरे कोई काम वाली मिली की नहीं " ।
" हाँ माँ , मिल गयी है , बहुत सफाई से काम करती है फातिमा " ।
" देखना बेटा , संभाल के रखना , आज कल टिकते नहीं ये लोग , समझी "
मौलिक एवम…
ContinueAdded by विनय कुमार on August 4, 2014 at 2:30am — 16 Comments
कभी तो प्यार हमको वो किया होता
वफा के नाम पे धोखा दिया होता
तड़पती रूह को भी चैन आ जाता
कफ़न उसने हमारा गर सिया होता
शिकायत जिन्दगी से हम नहीं करते
दवा बन दर्द वो मेरा लिया होता
न मैखाने कभी जाते भुलाने गम
हमारे अश्क उसने गर पिया होता
हमें तो जिन्दगी से प्यार हो जाता
अगर वो साथ दो पल बस जिया होता
मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी
Added by Akhand Gahmari on August 4, 2014 at 12:16am — 6 Comments
काम काम दिन रात है, पैसे की दरकार ।
और और की चाह में, हुये सोच बीमार ।।
रूपया ईश्वर है नही, पर सब टेके माथ ।
जीवन समझे धन्य हम, इनको पाकर साथ ।।
मंदिर मस्जिद देव से, करते हम फरियाद ।
अल्ला मेरे जेब भर, पसरा भौतिक वाद ।।
निर्धनता अभिशाप है, निश्चित समझे आप ।
कोष बड़ा संतोष है, मत कर तू संताप ।।
धरे हाथ पर हाथ तू, सपना मत तो देख ।
करो जगत में काम तुम, मिटे हाथ की रेख ।।
बात नही यह दोहरी, है यही गूढ ज्ञान ।
धन…
Added by रमेश कुमार चौहान on August 3, 2014 at 10:00pm — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 3, 2014 at 7:46pm — 10 Comments
ये रिमझिम सावन, अति मन भावन, करते पावन, रज कण को ।
हर मन को हरती, अपनी धरती, प्रमुदित करती, जन जन को ।
है कलकल करती, नदियां बहती, झर झर झरते, अब झरने ।
सब ताल तलैया, डूबे भैया, लोग लगे हैं, अब डरने ।।
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मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on August 3, 2014 at 6:30pm — 10 Comments
डरी, सहमी सी लगती है
अंदर जो आवाज है
जिसे अन्तरात्मा कहते हैं
वो चुप है
इस निःशब्द वातावरण मे
वह चीख बनके
निकलेंगे कब ?
जिंदगी, आखिर ....
शुरू होगी कब ?
खुले मन से हँसी
आएगी कब ?
कब खिलखिलाकर
सच सच कहूँ तो
दाँत निपोर कर
आखिर हँसेंगे कब ?
बरसों से इस जाल मे बंधी
उसी राह पर चलते – चलते
आखिर हम बदलेंगे कब ?
थोड़ी आस,
थोड़ा विश्वास
धीरे धीरे पिघलता…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:30pm — 7 Comments
बीच बाजारे हम खड़े , पाप पुण्य ले साथ
पुण्य डगर मैं बढ़ चलूँ , छोड़यो न प्रभु हाथ
पांडव बलहीन सदा, साथ न हो जब भीम
घर सूना कन्या बिना, अंगना बिना नीम
अंगना में लगाइये, तुलसी पौधा नीम
रोग रहित जीवन सदा, राखत दूर हकीम
व्यसन बुरे सब होत हैं, जानत हैं सब कोय
दूर रहें इनसे सदा , जीवन मंगल होय
दुर्दिन कछु दिन ही भले , मिलता जीवन ज्ञान
मित्र शत्रु और नारी की, हो जाती पहचान
बंधन ऐसा हो प्रभू , टूटे न कभी डोर…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 3, 2014 at 5:00pm — 10 Comments
गजल - वही साखी पुरानी है...
1222, 1222, 1222, 1222
वही काठी, वही जज्बा, वही लाठी पुरानी है।
हसीं बुत मिल गया जिसमें वही मिट्टी पुरानी है।
अॅंधेरों को मिटाकर रोशनी के साथ जलता जो,
वही सूरज, वही चन्दा, वही भट्टी पुरानी है।
जगा कर देश को जिसने बढाया मान-मर्यादा,
वही पत्रक, वही पोथी, वही रद्दी पुरानी है।
दिला कर मंजिले पर्वत शिखर का कद किया बौना,
वही धागा कलाई का वही रस्सी पुरानी है।
जला कर दीप…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 3, 2014 at 2:14pm — 12 Comments
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