(1). आ० महेंद्र कुमार जी
मृग-मरीचिका
‘‘प्यार से कोई आदमी कैसे डर सकता है?’’ यही वो सवाल था जिसने उसे उस पागल को केस स्टडी बनाने पर मजबूर कर दिया। जब वह पहली बार उससे मिली तो वो ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ था; कभी ज़ोर-ज़ोर से चीखता तो कभी गाना गाता और कभी चुपचाप बैठकर रोने लगता। उसने अपनी गाड़ी रोकी और गुलाब का एक फूल ख़रीदा। फिर उसे डैशबोर्ड के ऊपर रखी किताब पर रखा और पुनः ड्राइव करने लगी।
‘‘आपने इससे प्यार से बात क्यों की मैडम? मैंने बताया था न कि ये भड़क जाता है। इससे ऊँची आवाज़ में बात कीजिए, इस पर चिल्लाइए, झल्लाइए, गाली दीजिए पर इससे प्यार मत जताइए वरना ये यूँ ही दीवारों पे अपना सर पटकने लगेगा।’’ पागलखाने के प्रबन्धक की बात सुनकर उसे लगा कि वो तुरन्त वहाँ से चली जाए लेकिन उसने हार नहीं मानी और अन्ततः उसे ठीक करके ही दम लिया।
‘‘मैं पागल नहीं हूँ, बीमार हूँ; इतना बीमार कि अब कभी ठीक नहीं होऊँगा।’’ यही वो शब्द थे जो उसने थोड़ा ठीक होने पर उससे पहली बार कहे थे। पर ये सब इतना आसान नहीं था। क्या कुछ नहीं किया उसने, किस किस को नहीं ढूँढा, किस किस से नहीं मिली।
‘‘उन्हीं की बदौलत आज उसकी ये हालत हुई है।’’ पागल के उस दोस्त की आँखों में गुस्सा था। ‘‘क्या चाहा था उसने? बस थोड़ा सा प्यार! मगर... पहली ने अपनी जाति के एक दौलतमन्द से शादी कर ली तो दूसरी ने अपने धर्म वाले से। सबने उसको धोखा दिया, सबने उसका इस्तेमाल किया, यहाँ तक कि मैंने भी... वो सही कहता था, निःस्वार्थ प्रेम एक भ्रम है।’’ वह बड़बड़ाता जा रहा था। ‘‘दुनिया को प्यार की नहीं, नफ़रत की ज़रूरत है।’’
बहुत खोजने पर उसे उसकी नोटबुक मिली। उसे सरप्राइज़ देने के लिए उसने उसकी नोटबुक से कविताओं को संकलित करके एक किताब छपवायी जिसे मेण्टल हाॅस्पिटल से आज उसके छूटने पर वह उसे गिफ्ट करना चाहती थी। वही किताब उसके डैशबोर्ड पर रखी थी। उसने गुलाब को उठाया, उसे चूमा और फिर वहीं पर रख दिया। वो आयी तो थी उस पर स्टडी करने पर कब उसके प्यार में पड़ गयी उसे पता ही नहीं चला। ‘‘तुम्हारी तलाश मुझ पर ख़त्म होती है। आई लव यू!’’ कल उसने उसका हाथ पकड़ते हुए उससे कहा था।
वह हाॅस्पिटल पहुँच चुकी थी। हाॅस्पिटल के अन्दर भीड़ जमा थी। लोग आपस में बातें कर रहे थे। ‘‘पता नहीं कल शाम से इसको क्या हो गया? कभी हँसने लगे तो कभी रोने लगे, कभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाये तो कभी एकदम शान्त हो जाये।’’
भीड़ को चीर कर वो अन्दर पहुँची। वहाँ एक लाश पड़ी थी। वो लाश उसी पागल की थी जिसने कल रात दीवारों से सर फोड़-फोड़ कर अपनी जान दे दी थी। वो धम्म से ज़मीन पर गिर गयी। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे जो कभी किताब पर गिरते तो कभी उस गुलाब पर।
तभी किसी ने पीछे से कहा, ‘‘बेचारा पागल!’’ वह पलट कर ज़ोर से चिल्लायी, ‘‘वो पागल नहीं था, बीमार था... बीमार!’’
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(2). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी
दहशत
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जगतदेव अवधपुरी के उत्तराधिकारी बाबा उमाकांत महाराज ने पाण्डाल में हज़ारों की संख्या में बैठे भक्तों को संबोधित करते हुए कहा -" धर्म प्राण प्यारे भक्तों , आज घोर कलयुग है । पहले के समय में लोग महात्माओं के पास सत्संग सुनने जाते थे । इससे घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती थी , परम आनंद की प्राप्ति होती थी , गृहस्थ जीवन खुशहाल होता था । लेकिन अब लोगों ने महात्माओं के पास जाना बंद कर दिया । इसलिए लड़ाई-झगड़े , हत्या , मारपीट , व्यापक हिंसा , तकरार , दुष्कर्म , बलात्कार , तलाक , लूट, धोखाधड़ी आदि की संस्कृति पनप रही है । इन सबसे छुटकारा पाने के लिए संतों , महात्माओं के पास जाना चाहिए , उनके सान्निध्य में रहना चाहिए , उनकी सेवा -चाकरी करना चाहिए । कुछ वक़्त आश्रम में बिताना चाहिए............।" इधर दो महिलाएँ आपस में खुसुर-पुसुर कर रही थी कि -"क्या संतों का चरित्र ठीक है ? क्या आश्रम सुरक्षित हैं ख़ासतौर से हम महिलाओं के लिए ? जिनको संत , महात्मा और गुरु माना था वे सब तो जेल में हैं ।" इतने में दूसरी महिला बोली -" ठीक कहती हो बहन , अब तो साधु - संत , महात्मा और गुरुओं के नाम से ही डर लगता है । "
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(3). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'डर के दर'
"सर, जैसा आपने कहा था, हमारी समिति ने सर्वेक्षण किया और यही पाया कि देश में चल रहे बदलाव के तहत हमारे शहर के चौराहों पर ऐतिहासिक महापुरुषों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मूर्तियां लगाने से कुछ नहीं होने वाला!" कुंवर जी के विशिष्ट आतिथ्य में चल रही महत्वपूर्ण गोपनीय मीटिंग में एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने कहा।
"मैंने कहा था न! मेरी मां, पिताजी, दादाजी या परदादा जी की आधुनिक मूर्ति ही आम जनता मुख्य चौराहे पर चाहती है!" पार्टी के सभी मौजूद समर्पित कार्यकर्ताओं पर दृष्टिपात करते हुए कुंवर जी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा - "इस शहर और यहां की जनता पर हमारे पूर्वज नेताओं की बड़ी कृपा रही है! बस, जो भी मूर्ति वहां लगे, विख्यात संग्रहालय जैसी 'मोम' की संभव न सही , लेकिन अत्याधुनिक तो होनी ही चाहिए!"
"जी श्रीमान, तभी लोग थोड़ा रुक कर, निहारकर अपनी श्रद्धा प्रकट करेंगे!" एक कार्यकर्ता बोला - "वरना चौराहों पर लोगों का ध्यान केवल हॉर्नों पर या ट्रैफिक सिग्नल पर रहता है; मूर्ति पर नहीं!"
"ऐसा क्यों? क्या कारण है अहसानफ़रामोशी का?" दूसरे ने माहौल कुछ गर्म करते हुए कहा।
"माहौल ही ऐसा बनाया गया है! मंदिर- मस्जिद तो सब लोग अब जाते नहीं! केवल देवी-देवताओं को मानते हैं और उन्हीं से डरते हैं!" उसने प्रत्युत्तर में सफाई पेश की।
"तो क्या देवी लक्ष्मी जी की मूर्ति शहर के मुख्य चौराहे पर लगवा दें!" कुंवर जी का स्वर ग़ुस्से और तंज से लबरेज़ लगा।
"जी, लोग मन से परिक्रमा भी करेंगे और नमन भी! लेकिन कुछ अल्पसंख्यक एतराज कर सकते हैं!" एक मुस्लिम कार्यकर्ता ने कुछ डरते हुये हिम्मत दिखाई।
"तो क्या यहां भी खाली-खाली सी कोई मस्जिद बनवा दें, वोट-बैंक पक्का करने!" एक पंडितजी यकायक पीछे से बोल पड़े।
"देखो भाई, माता लक्ष्मी जी की पूजा-आराधना तो घर-बाहर सभी अपने-अपने तरीक़ों से करते ही रहते हैं, ज़रूरत और जगह के अनुसार! हमने तो यह तय किया है कि नई सदी में बदलाव की लहर में कोई आदर्शवादी श्रीराम-कृष्ण जी से तो ज़्यादा डरता नहीं! ज़रूरत तो है देवीमाता दुर्गा जी के नौ रूपों के नमन की!" एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने सर्वेक्षण-रिपोर्ट को बाख़ूबी समझाते हुए कहा।
"तो क्या शहर के छोटे-बड़े नौ चौराहों पर महिला सशक्तिकरण हेतु वे मूर्तियां लगवायीं जायें इस बार?" कुंवरजी ने प्रश्नवाचक स्वर में अपनी निराशा ज़ाहिर करते हुए कहा - "समस्या केवल फंड, निगम और सरकार के अनुमोदन... और फिर मीडिया-मसाले की रहेगी, बस!"
"सर जी, ग़ुस्ताख़ी मुआफ़! अगर मुख्य चौराहे पर एक शानदार मॉडर्न सा फ़व्वारा बनवाया जाये, तो?" एक प्रकृति-प्रेमी ने कहा।
"अच्छा सुझाव है, लेकिन आप भूल रहे हैं शहर का 'जल-संकट' और विवादित 'व्यवस्था-संकट'... !" कुंवर जी ने उसका प्रस्ताव लगभग निरस्त करते हुये कहा - "तनावग्रस्त लोग 'आर्ट ऑफ़ रिलैक्सिंग' से देर तक ट्रैफिक जाम कर सकते हैं!"
तरह-तरह के राय-मशविरे के बाद अंत में जारी "सामूहिक हस्ताक्षरित प्रस्ताव" पढ़ते हुए कहा गया- "उस मुख्य चौराहे पर तो या तो कुंवर जी की या उनके पिताजी की नवीनतम भव्य अत्याधुनिक मूर्ति ही लगवायी जायेगी क्योंकि उनके दादाजी तो पब्लिक में अब प्रासंगिक नहीं रहे! शेष में हमारे मशहूर पार्षदों, विधायकों वग़ैरह की!"
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(4). आ० अर्चना त्रिपाठी जी
परवरिश !
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" क्या बात हैं ? तुम यहाँ कैसे ?"
" पापा जी , राजीव ने मुझसे हर रिश्ते से इन्कार कर दिया हैं। "
" आखिर क्या बात हो गई ? तुम दोनों में तो अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी ! " कहते हुए मनोहर जी अतीत में पहुँच गए
तीन वर्ष पूर्व बेटे राजीव ने विवाह से इन्कार करते हुए कहा कि " वह और उसकी मित्र साक्षी लिव इन रिलेशनशिप में हैं। और विवाह जैसी बातें हमारे लिए मायने नही रखती।"
वे बेटे को बार बार सामाजिक नियमो की दुहाई देते हुए समझाते रहे कि , " मैं अपना मुँह कहाँ छिपाऊँगा?लोग मेरी परवरिश को भी गाली देंगे।तुम उसी लड़की से विवाह कर लो।मैं सहर्ष उसे अपनी बहू स्वीकार कर लूंगा।" लेकिन वह नही माना और घर छोड़ कर चला गया इसमे साक्षी ने उसका पूरा साथ दिया था ।
" पापा जी, वह नही चाहता कि उस पर पाबन्दी लगे जिसके लिए मैं उसे पाँच महीने से समझा रही हूँ।" साक्षी के स्वर की गम्भीरता बढ़ती जा रही थी।
साक्षी को पढ़ने की कोशिश करते हुए मनोहर जी ने थमे हुए पानी मे पत्थर डालते हुए कहा , " यह तो तुम्हे पहले ही पता था।"
लगभग कराहते हुए वह कह उठी , " नही जानती थी ऐसा हो जाएगा। चौथे अबॉर्शन के लिए डॉ. ने मना कर दिया हैं और अब तो समय भी निकल चुका हैं।"
" ओह ! इसी बात का मुझे डर था।उसे समझाने की कोशिश करता हूँ। जानता हूँ इसमे मेरी हार ही होगी।"
" अब ... मैं ... " साक्षी की आवाज गले मे घुटकर ही रह गई। मनोहर जी कठोर होते हुए बीच मे ही बोल उठे :
" अब तुम यहीं रहो।तुम दोनो की गलती की सजा किसी और को भुगतने नही देने दूंगा।और ना ही अपनी परवरिश का मजाक चौराहों पर उड़ने दूंगा।"
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(5). आ० कनक हरलालका जी
खबर
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"माँ... चिट्ठी आई है...", बेटे के हाथ से चिट्ठी ले कर उसने अंड़ोसे में ठूंसी और खेतों की ओर निकल पड़ी थी।
सुबह पहाड़ी झरने से पानी भरकर लाने के समय ही सास ने सूचना दी थी घर में लकड़ी खत्म है, आते बखत लेती आना। ढोर डंगरों के लिए घास भी लानी थी।
"उफ्फ ये कमर दर्द आजकल प्राण ले लेता है।" कुल्हाड़ी ,और लकड़ी बांधने की रस्सी के साथ उसने एक रस्सी कमर पर बांधने के लिए भी ले ली थी। कुछ तो आराम मिलेगा।
"खाने को कभी जुआर की सूखी रोटी तो कभी मड़वे का चावल बस यही, और काम कितना, बूढ़े सास ससुर, ढोर डंगर, खेत जिनमें कुछ उपजे ही नहीं, झरने का पानी लाना, दोनों छोटे बच्चे, लाली तो अभी गोदी में ही है, बदन चले तो कैसे , हाड़ हाड़ चिटक जाता है..."
"जंगल में आजकल आदमखोर घूम रहा है जल्दी आ जाना।" सास ने सुबह घर से निकलते समय खबर दी थी।
"उफ्फ ये कमर दर्द..." अब चला नहीं जा रहा था। घर भी जल्दी जाना था। टीले पर बैठ कर उसने चिट्ठी निकाली। जरूर सिपाहिड़े के घर आने की चिट्ठी होगी। साल में एक बार छुट्टी मिलने पर फौजी घर आता था। जो चिट्ठी कभी प्यार का संदेशा लेकर आती थी दो तीन सालों से उसे दहला जाती थी।वह साल भर का भूखा प्यासा घर आता था।
"उफ्फ ये कमर का दर्द.." डर से दहल गई वह।
"इस बार छुट्टियां खारिज हो गई हैं।किसी जगह बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में एक्सट्रा ड्यूटी का फरमान आया है। अबकी बार घर नहीं आ पाऊंगा।"
लकड़ियां उठा डूबते सूरज के साथ उसने दुखती कमर पर हाथ रख धीरे धीरे आराम के साथ घर की ओर कदम बढ़ाए। कुछ देर भी हो जाएगी तो चलेगा। अब उसे आदमखोर का डर नहीं सता रहा था।
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(6). आ० तस्दीक अहमद खान जी
दहशत (डर)
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माँ ने आवाज़ देते हुए कहा, "मुन्नी सवेरा हो गया उठ जा, क्या बकरियाँ चराने नहीं जाना"?
मुन्नी उठ कर माँ के पास जा कर बोली, "मैं जंगल में बकरियाँ चराने नहीं जाऊंगी"
माँ ने डाँटते हुए कहा, "बाप मज़दूरी करता है, इनके दूध से घर का खर्चा चलता है, नहीं जाएगी तो दो वक़्त की रोटी कैसे मिलेगी "
मुन्नी ने सहमे लहजे में जवाब दिया," मुझे बहुत डर लग रहा है, कहीं कोई रेहाना की तरह मुझे भी उठा कर न ले जाए, मेरी अस्मत तार तार करके, क़त्ल करके लाश को जंगल में फेंक दे "
बाप को खाना देते हुए माँ ने कहा," तेरा कहना सही है, सारे गाँव मे दहशत का माहौल है, रेहाना के क़ातिल अभी तक पकड़े नहीं गए"
मुन्नी उदास होते हुए बोली," मुझे क्या आप जान बूझ कर मौत के मुँह में धकेल रही हैं "?
माँ ने सर पर हाथ रख कर कहा," नहीं बेटी, मगर रेहाना के हादसे की वजह से सारे काम तो बंद नहीं हो जाएँगे "
माँ बेटी की बहस के दौरान बाहर अचानक शोर सा सुनाई दिया | मुन्नी के बाप ने बाहर आकर किसी से पता किया |
भीड़ में किसी ने बताया," पुलिस रेहाना के क़ातिल को पास के गाँव से पकड़ कर थाने ले जा रही है"
मुन्नी जो बाहर खड़ी सब कुछ देख और सुन रही थी, फ़ौरन माँ से बोली, "माँ खाना दे दे, बकरियाँ चराने जाना है" |
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(7). आ० डॉ टी आर सुकुल जी
‘‘ क्यों दादा ! उस दूकान पर नौकरी करने वाले ये सज्जन कौन हैं, उम्र के अंतिम समय में भी बड़ी तल्लीनता से जुटे रहते हैं, किसी से बातचीत भी नहीं करते और हमेशा प्रसन्न ही देखे जाते हैं’’
‘‘ कौन ? वो ‘किराने’ की दूकान पर ?
‘‘ हाॅं , वही ।’’
‘‘ जानकर क्या करोगे, मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हॅूं परन्तु उन्होंने अपने बारे में किसी से कुछ भी बताने के लिए मना किया है ।’’
‘‘ पर क्यों , क्या किसी का कत्ल करके छिपा हुआ है ?’’
‘‘ नहीं , ऐसा तो स्वप्न में भी न सोचना, समझे ? ’’
‘‘ तो ऐसा रहस्य क्या है जो गोपनीय रखा गया है ?’’
‘‘ अरे क्यों कुरेदते हो, बात स्वाभिमान की है और कुछ नहीं ।’’
‘‘ अरे भाई ! मैं जान जाऊंगा तो कौनसी मुसीबत आ जाएगी, जानकर हम भी प्रोत्साहित होंगे और दूसरों को भी प्रोत्साहित करेंगे। ’’
‘‘ यही तो डर है, उन्हें पता चल गया तो वे उसी क्षण चले जाएंगे और मैं नहीं चाहता कि वह यहाॅं से जाएं ’’
‘‘ तो तुम अपने किसी स्वार्थ के लिए ... ?’’
‘‘ नहीं , नहीं , वह बात नहीं है वास्तविकता पता चल जाने पर यहाॅं उन्हें कोई भी व्यक्ति अपने घर में नहीं रखेगा; मैं नहीं चाहता कि इतना आदरणीय विद्वान व्यक्ति मुझ रिटायर्ड फौजी के कारण व्यर्थ ही कष्ट उठाए ।’’
‘‘ अब तो आपने और अधिक उत्सुकता बढ़ा दी है, मैं कसम खाता हूॅं किसी को नहीं बताऊंगा परन्तु सच्चाई जानकर मैं अपने को धन्य ही समझूंगा।’’
‘‘ तो सुनो, जहाॅं मैं सैनिक था उसी राजदरवार में यह सज्जन मंत्री थे, बड़े ही विद्वान और सबके आदरणीय। अचानक उनके मन में यह बात आई कि केवल अपना पेट पालने के लिए मैं राजा की झूठी प्रशंसा कब तक करता रहॅूंगा; उसकी हाॅं में हाॅं कब तक मिलाता रहॅूंगा, जिस काम के लिए यह जीवन मिला है वह तो कभी कर ही न पाऊंगा और, अगले ही क्षण वे किसी को बिना बताए अपनी सम्पत्ति और उस राज्य दोनों को छोडकर वेश बदलकर यहाॅं छः घंटे काम करने लगे, शेष समय में अपना असली काम।’’
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(8). आ० अजय गुप्ता जी
ज़माना
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मेरा स्टॉप आ गया और मैं बस से उतरने लगा. बस में मेरा सफ़र पहली बार तो नहीं था. फिर भी ऐसा पहली बार हुआ. उतरते उतरते मैंने फिर से पीछे मुड़ कर देखा. वो प्यारी सी बच्ची अभी भी मुझे देख रही थी. और पिछले आधे घंटे का सार मेरी आँखों के सामने से एकपल में गुज़र गया.
मैं टिकेट लेकर बस में बैठा और मेरे बाजू में एक सज्जन और बैठ गए और अखबार पढने लगे. आगे वाली सीट पर एक दंपत्ति बैठे थे जिनके साथ एक प्यारी से बच्ची थी. कोई 6-7 साल की. . बच्ची की माँ सोई पड़ी थी और पिता मोबाइल में व्यस्त था. बाजू वाला अब भी सब से बेखबर अखबार में पूरी तरह मग्न था.
मेरी आदत है बच्चों के साथ हिल मिल जाने की. तो मैंने बच्ची के तरफ जीभ निकाल दी. बच्ची भी मुस्कुरा पड़ी. यूँही मासूम इशारों का एक सिलसिला चल पड़ा. कभी मैं मुंह हाथों से छुपाता कभी वो. लग रहा था हम अजनबी नहीं हैं. जैसे मेरी भतीजी ही मेरे सामने थी. मन में आया इसे अपनी सीट पर ले लूँ से और बातें करूँ. और ऐसा बहुत बार हुआ था. बच्चे खुश हो जाते थे. माता-पिता भी. मैं भी.
और मैं उसे उठाने को बढ़ने को हुआ. अचानक से बाजू वाला बोला, “क्या ज़माना आ गया है. देखिये रोज़ की ख़बरें. अब तो बच्चियां भी सुरक्षित नहीं. अपनापन दिखाने वाले भी कितनी गन्दी हरकतें कर जाते है. डर लगता है. किसपर विश्वास करे.”
और एक अनजान भय से मेरे बढ़ते हाथ वहीँ रुक गए थे.
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(9). आ० प्रतिभा पाण्डेय
अन्दर बाहर
"ये बजरंग बांण जो जापे, तासै भूत प्रेत सब काँपें।" घण्टी के साथ जेठ जी का बजरंग बांण पूरे घर में गूँज रहा था।
" जय हो। " अम्मा ने हाथ जोड़कर माथे पर रख लिये।
शांति बिना सर उठाये सिलाई मशीन मे लगी रही।
"तू खुद तो पूजा करती नहीं है बहू, पर घर में पूजा हो रही है तो पल्लू सर पर लेकर हाथ तो जोड़ सकती है।" अम्मा चिढ़ कर बोली।
" काम बहुत है अम्मा।" शांति ने मशीन से सर नहीं उठाया।
"और छोरी भी तेरी दिन भर बाहर खेलने की जिद करती है। बिन बाप की है।कल को कुछ ऊँच नीच हो गई तो हमारे माथे आयगी।बाहर जमाना कित्ता खराब है।" अम्मा ने दूसरा तीर निकाला।
"कैसे डराऊँ अपनी पाँच साल की बच्ची को अम्मा?"मशीन पर चलते उसके हाथ अब रुक गये थे। सास की आँखों में सीधे देख रही थी वो।
" कैसे क्या! जैसे सब बच्चों को डराते हैं। घर से बाहर मत जाना काला भूत है पकड़ लेगा।और..और.." अम्मा की आवाज में सकपकाहट थी।
"बस्स?और घरों के अन्दर के भूत ? उनके बारे में बताऊँ कि नहीं अम्मा?"
आरती की थाली लिये खड़े जेठ को जलती निगाहों से देखते हुए उसने सफेद पल्लू सर पर खींच लिया।
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(10). आ० आशीष श्रीवास्तव जी
डर
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‘’कोई भूत-बूत नहीं होता! सब बातें हैं! मैं नहीं डरती, किसी भूत से!” महाविद्यालय में अपने मित्र, संभव से शांभवी ने कहा तो मुस्कुराते हुए संभव ने चुनौती दे दी कि, “नगर के खंडहर पड़े किले में, दिन में ही जाकर बता दो तो मान जाऊंगा। “
शांभवी : “दिन में क्या रात में भी जा सकते हैं, पर क्यों जायें?”
संभव : “क्यों, पता नहीं करना भूत होते हैं या नहीं।“
शांभवी : “तो चलो, शर्त स्वीकार है।“
दोनों नगर के किनारे वर्षों से वीरान पड़े किले में पहुंच गए। एकदम परिवर्तित वातावरण ने उनके मानस पटल को भी परिवर्तित कर दिया। वे अभी दूसरी मंजिल के एक बड़े-से हाल में पहुंचे ही थे कि सामने खिड़की पर रखे बड़े-से कांच को देखकर रूक गए। धूल पड़े, मकड़ों के जालों से घिरे कॉच में चेहरा अस्पष्टता लिये दिखने लगा।
शांभवी : “क्या हुआ रूक क्यों गए। दोनों के चेहरे के भाव बदल गए थे।“
संभव : “यूं ही मजाक कर रहा था, चलो यहां से निकल चलते हैं।“
शांभवी : “क्यों डर गए न, शर्त हार गए!!” संभव ने कॉच की ओर इशारा किया तो शांभवी ने अपने चेहरे के केशों को दांयें हाथ से पीछे कर, आगे बढ़ते हुए कॉच के समीप आकर झांका। उसे संभव का चेहरा दिखाई दिया, पर जैसे ही शांभवी ने संभव की ओर देखा। जोर से चीख पड़ी और वहां से तेजी से भागी, पीछे भागते हुए संभव से भी तेज.....।
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(11). आ० बबिता गुप्ता जी
बस ,अब और नही......
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आज तो हद ही हो गई........लता दोपहर में पडोस की महिलाओं के साथ किसी के घर बुलाने में गई थी,लौटेते-लौटते रात के सात बज गये.घंटी बजाते हुए उसके हाथ काँप रहे थे.मन आशंकाओं से भरा हुआ था.काफी देर बाद जब गेट का ताला खोला गया,तो पति के गुस्से भरे चेहरे को पढ़ मांजरा समझ आ गया.अंदर पहुँचते हो सासू माँ के सामने अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि उनके तीखे व्यंग शुरू हो गये.पीछे से पति ने साथ देते हुए घर के सरे नियम कायदे याद दिला दिए.आधुनिक परिवेश में पली बढ़ी लता ससुराल के परम्परावादी,दकियानूसी सोच के कारण घर की चहारदीवारी में कैद सी हो गई थी.उसका जीवन दूसरों की शर्तों पर चलने लगा.बिना किसी शिकायत के वह एक जीती जागती हाडमांस की कठपुतली बन कर रह गई थी.धार्मिक आस्थाएं उसके मन में हर कोने में घर कर गई थी.जरा भी कही कुछ ऊंच-नीच हो जाती तो वह किसी अनिष्ट आशंका से घिर जाती.कभी उसका मन विद्रोह कर स्वतंत्र जीवन जीना चाहता ,पर परिवार के सदस्यों के प्रति अंध भक्ति ,रूढ़िवादी रीतिरिवाजों के प्रति आस्था इस लक्ष्मण रेखा को पार नही कर पाती थी.दो बेटी और एक बेटे की माँ लता का खंड-खंड होता जीवन एक पिंजरे की परम्पराओं रूपी सलाखों के डर में इस तरह कैद हो गया थी,वो चाह कर भी इनको तोड़ नही पाती थी.लेकिन उसके अंतर्मन में विद्रोह ने पैर जमा लिए थे.आने वाली पीढी को इस परिपाटी पर नही चलाना चाहती थी
बेटियों की शादियां उसकी बिना सलाह मशविरा के अपने हिसाब से कर दी गई थी.वो मात्र एक मूक दर्शक की भांति अपने कर्तव्य निर्वाह किये जा रही थी.कुछ समय रहते बेटे की शादी तय कर दी गई.रीतिरिवाजों के साथ विवाह सम्पन्न हो .उसके साथ भी वही सब बंदिशे लगाई जाने लगी.कभी समझाने की कोशिस करती तो लता को और दुगुनी बंदिशे में बाँध दिया जाता.लेकिन एक दिन तो इन सब बातों की सीमा पर हो गई.बहु के साथ किसी बात पर जरा से मतभेद ने माहौल गरमा दिया. एक कैदी की तरह बहु पर चारो तरफ से मर्यादाओं के प्रहार किये जा रहे थे.यह सब देख अनायास ही लता उनके बीच पहुँच गई.तेज आवाज सुन सब हतप्रद हो उसकी तरफ देखने लगे.
बहु के पास पहुँच कहने लगी- 'मैं आपकी बहु हूँ,आपके हिसाब से चलूंगी ,लेकिन मेरी बहु मेरे हिसाब से ....................
लता की पूरी बात ना सुन, बीच में ही सासू माँ बोल पड़ी- बड़ी आई सासपना जताने वाली ,पहले तो में तेरी सास हूँ...
बात बीच में ही काट ,लता ने उग्र शब्दों में कहा - 'माँ,अब बहुत हुआ ,बस ,अब ,और नही.........
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(12). आ० तेजवीर सिंह जी
निडर
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लालबाग थाने के दरोगा के सामने कुर्सी पर एक छब्बीस साल की लड़की रिपोर्ट लिखाने बैठी थी।
“दरोगा जी, परसों रात ग्यारह बजे मेरे पड़ोसी मनोहरलाल शुक्ला जी के बेटे और भतीजे ने मेरे साथ बलात्कार किया था, उसकी रिपोर्ट लिखानी है”|
"क्या ये वही शुक्ला जी हैं, जो मंत्री हैं"?
"जी हाँ, ये वही हैं"।
"पर वे तो यहाँ नहीं रहते"?
"सही कहा आपने, उन्होंने इस मकान में कुछ गुंडे छोड़ रखे हैं जो हमको मकान बेचने के लिये धमकाते रहते हैं"।
"पर तुम बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने दो दिन बाद क्यों आई हो"?
"क्योंकि कुछ इससे भी जरूरी काम थे"?
"जैसे"?
“यह बलात्कार की घटना मेरे ही घर में मेरे पिता की आँखों के सामने हुई। उनकी इस सदमे से मृत्यु हो गयी। मेरे अलावा उनका इस दुनियाँ में और कोई नहीं है। इसलिये उनका अंतिम संस्कार करना मेरी पहली प्राथमिकता थी"।।
"तुम्हारे पास इस घटना का कोई सबूत और गवाह है क्या"?
“जी बिल्कुल है, लेकिन वह सब मैं अदालत में पेश करूंगी"।
"थाने में क्यों नहीं"?
"मुझे भरोसा नहीं है"।
"जब थाने पर भरोसा ही नहीं है तो यहाँ आने का मक़सद क्या है”?
"रिपोर्ट लिखाने"।
"अगर मैं रिपोर्ट नहीं लिखूं तो"?
"देखिये दरोगा जी, मैं एक लॉ ग्रेजुएट हूं। "मुखबिर" मीडिया ग्रुप की प्रेस रिपोर्टर हूं। मेरे घर में विडिओ कैमरे लगे हैं। इस पूरी घटना को अभी एक घंटे के अंदर मीडिया पर लाइव दिखा दूंगी"।
इतना बोल कर लड़की उठकर चल दी।
दरोगा जी ने उसे वापस बुला लिया,
"तुम इतने बड़े और ताकतवर लोगों से टक्कर ले रही हो। तुम्हें डर नहीं लगता"?
"दरोगा जी, अब मेरे पास खोने को कुछ बचा ही नहीं तो डर कैसा"?
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(13). आ० डॉ आशुतोष मिश्रा जी
डर
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“माँ! रूचि कुत्ते के पिल्लों के मुहं में कभी हाथ डाल रही है कभी उनके कान खींच रही है” राहुल ने अपनी मम्मी से छोटी बहिन की शिकायत करते हुए कहा
“ कोई बात नहीं बेटा, पप्पीस पालतू हैं , खेलने दो कोई बात नहीं “ माँ ने राहुल को समझाते हुए कहा
“ माँ ! रूचि मान नहीं रही है, कभी अलमारी पर तो कभी पलंग के हुड पर खडी होकर कूद रही है / एक दो बार गिरते गिरते भी बची है –मुझे तो बड़ा डर लग रहा है “
“ कोई बात नहीं बेटा! खेलने दो, इससे हिम्मत बढ़ती है “
कुछ देर तक राहुल का अपनी माँ से रूचि की शिकायतों का दौर चलता रहा और फिर जब माँ का काम ख़त्म हो गया तो उसने राहुल को आवाज दी
“ बेटा, रूचि कहाँ है? “
“ माँ! अभी पड़ोस के बबलू भैया आये थे, रूचि उनके साथ पास की दुकान पर टाफी लेने के लिए बस अभी ही निकली है “ राहुल ने त्वरित जवाब दिया
“क्या ! अरे उसे तुरंत बापस बुलाओ, मुझे बड़ा डर लग रहा है “
“ डर ..कैसा डर माँ , बबलू भैया के ही साथ तो गयी है ;अभी आ जावेगी “ राहुल ने चौंकते हुए कहा
“ बस तू जल्दी से उसे बुला ला ..मुझे क्यूँ डर लग रहा है अभी तू नहीं समझेगा “
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(14). आ० बरखा शुक्ला जी
विजय
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लीना दोपहर में लेटी ही थी कि उसकी सास घबराते हुए आयी और बोली ,”बहू तुम्हारे ससुर जी को बड़ीं घबराहट हो रही है ।पसीना पसीना हो रहे है ।”लीना जल्दी से उठ कर सास के कमरे में गयी , तब तक सास ने नौकरानी कमला को भी को भी आवाज़ दे दी ।
लीना बोली “मम्मी जी हम पापा जी को अस्पताल ले चलते है। कमला तुम और मम्मी जी पापा जी को जल्दी से कार में बैठायो ,मैं अभी चाभी लेकर आती हूँ ।”
“पर बहू तुम वो कार । “लीना की सास ने कहना चाहा ।
“ मम्मी जी जल्दी करिए ,अभी सोचने का समय नहीं है।”लीना बोली ।
वो लोग शीघ्र ही पास के अस्पताल पहुँच गए , डाक्टर ने जल्दी से उनका इलाज शुरू कर दिया ।
थोड़ी देर में संयत हो कर लीना ने अपने पति राहुल को भी फ़ोन लगा कर बता दिया ।वो भी अस्पताल आ गए ।
कुछ समय बाद डाक्टर ने आकर बताया “माईनर अटैक था ,अच्छा हुआ समय पर ले आए , अब वो बिलकुल ठीक है ।थोड़ी देर में आप लोग भी उनसे मिल सकते है ।”
उन लोगों ने डाक्टर को धन्यवाद दिया ।फिर बेटे ने पूछा “आप लोग पापा को आँटों से लेकर आए क्या ,क्यों कि ड्रायवर तो आज छुट्टी पर था ।”
“अरे बहू कार चला कर लायी । “सास हुलस कर बोली ।
“ओह लीना तुम अकेले कार चलाने में कितना डरती हो , कभी चलायी ही नहीं ,आज तुमने न केवल अपने डर पर विजय पायी है ,बल्कि पापा की जान भी बचाई हैं ।”राहुल बोला।
“अरे पापा जी की तबियत देख कर मुझे मेरा डर याद ही नहीं रहा । “लीना बोली।
“बहू ने आज बड़ी समझदारी का काम किया ,मुझे मेरी बहू पर नाज़ है ।”ऐसा कह कर सास ने लीना को गले लगा लिया ।
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(15). आ० नीता कसार जी
जीत ले खुद को
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"तेरे पेपर चल रहे हैं ना कृष्णा ?" विष्णु भैया जो शहर के नामी वक़ील है,ने लापरवाही से घर में चहलक़दमी कर रहे छोटे भाई से पूछा ।
"जी भैया,पर हम परीक्षा का बहिष्कार करने वाले है," कृष्णा ने सिर झुकाकर कहा ।
''हम'में कौन कौन शामिल है?वकालत की परीक्षा चल रही हैं,तुझे वक़ील नही बनना।"
कहते हुये भैया के चेहरे पर आश्चर्य झलकने लगा ।
''हमारा जो प्रिंसिपल है खड़ूस है ,टीचर भी वैसे ही है कोई क्लास में जाना नही चाहता,
क्लास अटैंड करों ना करो कोई फ़ायदा नही।" कृष्णा ने धीरे से कहा।
"तू जानता है क्या कह रहा है मेरे भाई ?" विष्णु भैया के तेवर तीखे होने लगे,वे अपने आप को संयत करते हुये बोले ।
"चल बैठ कार में," हाथ पकड़ उन्होंने भाई को पीछे की सीट पर बैठाया,गाड़ी हवा से बातें करने लगी ।
अपने आप को कालेज में पाकर कृष्णा सन्न् रह गया,झुरमुट में छिपे दोस्त असहाय रहे,बड़े भैया के सामने कोई क्या करता ?
"चल भीतर जा ,क्लास रूम में धकेलते हुये विष्णु भैया ने इतना ही कहा ।
यही हूँ तेरे सामने ,सब नेतागीरी भूल जा ।मन लगाकर
परीक्षा दे छोटे ,वरना ना नेता बन पायेगा ना वक़ील ।"
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(16). योगराज प्रभाकर
भय की चादर
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दफ्तर से घर लौटा तो देखा कि मेरी पत्नी किताब में नज़रें गड़ाए बैठी थीI
“अरे भई तुम तो किताब में ऐसी मस्त हो कि मेरी तरफ ध्यान ही नहीं दियाI”
यह सुनते ही सकपका कर किताब को एक तरफ रखा और चेहरे पर एक निर्मल सी मुस्कान लाते हुए वह बोली,
"आपने बिल्कुल ठीक कहा था कि साहित्य पढ़ने से आनंद भी मिलता है और ज्ञान भीI सच में ये टीवी सीरियल वगैरा तो एक बीमारी है, निरी वक्त की बर्बादी...." यह सुनकर मेरे चेहरे पर एक विजयी मुस्कान फैल गई, क्योंकि अपनी मेट्रिक पास बीवी को साहित्य पठन का शौक मैंने ही लगाया थाI
"क्या पढ़ रही थी?” मैंने किताब उठाते हुए पूछाI
"आपके परम मित्र मन्नू जी की कहानीI”
"अच्छा, वो फ़ौजी की बीवी वाली?"
"हाँ! वही पढ़ रही थीI” पत्नी के स्वर में उत्साह नही थाI
"अरे वाह! कैसी लगी?"
"एकदम बेकारI"
“बेकार?” ऐसा कठोर निर्णय सुनाकर मैं हक्का-बक्का रह गयाI
“हाँ जी, एकदम बेकारI इतनी कमजोर भाषा और इतनी अजीब सी शैली!!”
"ये बहुत जाने माने लेखक हैं, पता है न?" मेरी हैरानी का पारा ऊपर की और जा रहा थाI
"पता है, मगर हकीकत पता क्या है? नाम बड़े और दर्शन छोटेI"
"अरी भागवान, इस कहानी के चर्चे तो हर जगह हो रहे हैंI और तुम कह रही हो किIIII"
"देखिए, कहानी की शुरुआत बहुत अच्छी हैI बीच के हिस्से में जो सस्पेंस है वह भी बढ़िया हैI मगर अंत तक आते आते कहानी की गति बिलकुल पैदल हो जाती हैI” पत्नी के अंदर से कोई प्रबुद्ध आलोचक बोल रहा थाI
"अरे इसमें सन्देश तो देखो कितना सार्थक हैI" मैंने उसे गलत सिद्ध करने का प्रयास कियाI
"सन्देश तो ठीक है, मगर कहानी को इतना लम्बा खींचने की क्या ज़रूरत थी?"
पत्नी का तर्क एकदम सही था, लेकिन पता नही क्यों मुझे अपना कद छोटा होता हुआ अनुभव हुआI मैंने भी परीक्षात्मक प्रत्युत्तर दागा,
"तो तुम्हारे ख्याल से अंत कहाँ होना चाहिए था?"
मेरी झुंझलाहट को अनदेखा करते हुए पत्नी बोली,
"उस फौजी की लाश देखकर उसकी विधवा पत्नी के चहरे पर आ-जा रहे भावों पर ही इसका अंत कर दिया जाता तो कहीं बेहतर होताI उसके बाद इतने लम्बे-चौड़े व्याख्यान की क्या तुक बनती है?"
तर्क अकाट्य था, और मैं मौनI कुर्सी से उठकर रसोईघर की तरफ जाते हुए एक फतवा मेरी तरफ उछाला,
“अच्छी खासी कहानी का सत्यानाश कर दिया, इस विषय पर इनसे बेहतर तो मैं ही लिख सकती हूँI”
यह सुनकर शब्द मेरा हाथ छुड़ा कर भागने लगे और मेरा मुँह खुला का खुला रह गयाI मैने जल्दी से पलंग के सिरहाने पड़ी अपनी कहानियों वाली डायरी उठाई और चुपके से तकिये के नीचे छुपा दी और कोहनी रखकर अपने पूरे शरीर का बोझ उस पर डाल दियाI
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(17). आ० नयना (आरती) कानिटकर जी
"मैं नही बहूँगा."
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"ओह्हो मम्मा! कल हम जो नैपकिन्स ले कर आये है। वो कहाँ रख दिए आपने और वो..." सुमि व्यग्र होकर पूछ रही थी
" वही तो रखे है बेटी जहाँ तुम्हारे ले जाने का सारा समान इकट्ठा करते चले आ रहे हैं। " उसने लड्डू की पिठ्ठी भुनते-भुनते ही जवाब दिया
" आप भी ना माँ! एक तो पता नही आप क्या क्या वहाँ रखती चली जा रही। क्या पूरा इंडिया मेरे साथ रखोगी?"
" ना बेटी! पर वहाँ का मौसम, खाना-पिना...." भुनी पिठ्ठी में शक्कर मिलाते उसने कहा
" मम्मा! ये आपकी आवाज़ को क्या हुआ? इधर देखिए जरा।" कंधे को पकडते हुए अपनी तरफ माँ का मुँह घुमाते उसने कहा
" कुछ तो नहीं बेटा ! तुम्हें अपने से इतनी दूर करते मन थोड़ा... तुम चार हाथ होकर जाती तो..बस यही गम साल रहा मुझे।" उसने अपने आप को संयत करते हुए कहा
" ओह माँ !आप रोई है रात भर। क्या आपको मुझ पर भरोसा नहीं है।"
" बहुत भरोसा है बेटा! पर तुम्हें कैसे बताऊँ कि ..."
" ओहो! आप भी ना, आप इतनी कमजोर कब से हो गई? आपने,पापा ने ही तो मेरे और भैय्यु के उडानों को इतनी मजबूती दी है और अब ये सब.." माँ के हाथों को कसकर थामते हुए सुमि ने कहा
" तुम सौ टका सही हो बेटा मेरा अविश्वास तुम पर नहीं है। पर एक जवान बेटी को इतनी दूर भेजने का..." ज़ुबान पर आए दूसरे शब्दों को जान बूझकर रोकते हुए उन्होने कहा
"चिंता ना करो माँ! कितनी भी ऊँची उड़ान भर लू, मेरे पैर सदा ज़मीन से टिके रहेंगे।"
इस बार आँखो में आया पानी वही थम गया। बोला.."मैं यहीं रहूंगा,खुशी का आँसू हूँ । मैं नही बहूँगा।"
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(18). आ० विनय कुमार जी
फायदा- लघुकथा
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"अच्छा हरिलाल, कितना कमीशन मिलता है तुमको इस दुकान से", दुकान से निकलकर उसके ऑटो पर बैठते हुए उसने पूछा. आगरा में घूमने के लिए उसने जिस ऑटोवाले को लिया था उसने न सिर्फ पूरा आगरा घुमाया, बल्कि उसके जरा से इशारे पर इस दुकान पर भी लाया था. पेठा ही लेना था उसको सभी दोस्तों के लिए लेकिन हरिलाल के कहने पर वह बगल की जूते की दुकान पर भी चला गया और बढ़िया क्वालिटी के जूते भी काफी कम कीमत पर ले लिए.
"कमीशन तो कुछ नहीं मिलता है साहब, बस दिवाली पर ५०० रुपये दे देते हैं रफ़ीक बाबू", हरिलाल ने ऑटो को आगे बढ़ाते हुए कहा. अब उसने एक बार फिर गौर से हरिलाल को देखा, उम्र तो लगभग उसके बराबर ही होगी लेकिन काफी बुजुर्ग लग रहा था. उसके आश्चर्य का पारावार नहीं रहा, अब उसे दो बातें परेशान करने लगीं. एक तो हरिलाल उसे लेकर रफ़ीक की दुकान पर गया और दूसरे वह कमीशन भी नहीं देता.
"तो फिर इसकी दुकान पर ही क्यों लाये, कहीं और जाते तो शायद कमीशन भी मिल जाता!", उसने अपनी जिज्ञासा को दूर करने के लिए फिर से पूछा.
"साहब, रफ़ीक बाबू बहुत भले आदमी हैं, हमें जब भी कुछ रुपयों की जरुरत होती है तो बेहिचक दे देते हैं और हम अपनी सुविधा से लौटा देते है. कोई ब्याज नहीं लेते हमसे, नहीं तो कहीं और से लेने जाएँ तो ब्याज में ही सब ख़त्म हो जायेगा", हरिलाल ने बड़े आराम से कहा.
अभी वह सोच ही रहा था कि क्या कहे तब तक हरिलाल ने फिर कहा "और जानते हैं साहब, यह ऑटो खरीदने के लिए भी पैसे रफ़ीक बाबू ने ही दिया है, हम हर महीने ५ हजार करके चुका रहे हैं. पहले हमारे पास रिक्शा था लेकिन उम्र के साथ मुश्किल हो रहा था तो इन्होने ही कहा कि इसे खरीद लो", हरिलाल की आवाज़ में अब उसे भी संतुष्टि साफ़ साफ़ सुनाई दे रही थी.
उसका दिमाग उलझ गया, आज के माहौल में जब हर जगह डर पैदा किया जा रहा है और बाँटने की कोशिश चल रही है, वहीँ हरिलाल और रफ़ीक जैसे लोग भी हैं. जोड़ने घटाने पर उसे लग रहा था कि इस वाकये में फायदे में तो दोनों ही हैं लेकिन सबसे ज्यादा फायदा अगर किसी को हो रहा है तो वह अपनी गंगा जमुनी तहजीब को. आगरा शहर अब उसे और खूबसूरत लगने लगा था.
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(19). आ० मनन कुमार सिंह जी
एडमीन
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.हाँ शुरुआत फेसबुक से हुई।
-कब?
-अरे यही कुछ तीन-चार साल पहले की बात है।
-फिर?
--फिर क्या?लिखा-पढ़ी चलने लगी।
-लिखा-पढ़ी?
-मतलब एक लिखता,दूसरे पढ़ते।यूँ ही एक समूह बन गया।समूह बना,तो एक शासक हुआ।वही एडमिन कह लें।
-अच्छा!वही एडमिन हुआ?मुझे लगता था कि कोई जबर्दस्त जानकार होता होगा यह एडमिन।
समूह को एडमिन चाहिए।उसका जानकार होना जरूरी नहीं ।
-कहें कि इतने सारे एडमिन बहाल किये किसने?
-बुझे न बबुआ, एडमिनगिरी का मतलब?
-जी बाबा',बाबू बोला।
-आ इहो गँठिया लो....कोई चूँ नहीं कसता है एडमिन की कथनी -करनी पर।उ चाहे त हथेली पर दूब उगा सकेला।राई के पहाड़ आ पहाड़ के राई बनाना त ओकरा बाँयें हाथ के खेल होला रे बबुआ।
-आ बाबा एगो संपादको होला नु?
-हँ रे बचवा।उहो होला।पहिले के जमाना में लोग पहिले लेखक होत रहे।ओही में से केहू केहू संपादक हो जात रहे।आ अब त कह मत।
-का बाबा?
-आरे अब लोग पहिले संपादके हो जाता।मान लेहल जाता कि कबहूँ लेखक रहल होइहें।
-हाहाहा!खूब कहानी बाबा।
-सच्चाई इहे बा ये हमार बाबू।
-आ केहू कुछ बोलत काहे नइखे?
-ग्रुप से बेदखलकर दिहल जाई कि ना?
-ओ।
-एही से हँ में हँ मिलावल जाता।आ एडमिन बे अल्प-पूर्णविराम के आपन ज्ञान बघारत बा सब।भाषा के शुद्धि के बात त करवाइन लागता अब।
-बाकिर बाबा, सब एडमिन आ संपादक एके जईसन त नानु बा।
-भल कहल तू।बाकिर शेर बचले कय गो बा?बताव त।',बाबा की बात पर बाबू झूम उठा।
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(20). आ० वीरेंद्र वीर मेहता जी
टाइम पास
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"अरे बाबू जी काहे इतना सोच रहे है? होता हैं कभी कभी।" दूध वाला हल्का सा मुस्करा दिया।
"नहीं भाई, ये पहली बार नहीं हैं जब वह मुझसे कतरा कर निकल गए। कुछ दिन पहले भी ऐसे ही मुझे देखकर दूर से ही वह किसी और गली की तरफ मुड़ गये थे।" मैं कुछ असमंजस में था।
"अरे भाई कुछ रोकड़ा तो उधारी नहीं दे दिया था।"
"लगता है जनाब का कोई काम करने से मना कर दिया है आपने।"
दूध लेने आये लोगों में एक ने कटाक्ष किया तो दूसरे ने अपना विचार दे दिया, लेकिन इन दोनों ही बातों का उनके मुझे 'इग्नोर' करने से कोई सरोकार नजर नहीं आ रहा था।
"नहीं भाई नही, ऐसी कोई बात नहीं हैं। मुझे लगता हैं, कल सुबह जल्दी आकर ख़ुद ही पूछना होगा मुझे।"
"नहीं-नहीं बाबूजी!" दूध वाला यकायक बोल उठा। "आप जल्दी मत आइयें, और वैसे भी वह अब वह यहां दूध लेने नहीं आते।"
"अरे! ऐसा क्या हो गया? सालों से दूध लेते थे वो तो तुमसे। लगता हैं कोई बात जरूर हुई है और तुम जानते भी हो उनकी नाराजगी की वजह।" मैंने दूध वाले को अपनी बात पर जोर देकर कहा।"
"कोई नाराजगी नहीं है बाबूजी, बस हवा ही कुछ ऐसी चल पड़ी है। ये जो आप लोग सुबह-सुबह फेसबुक,व्हाट्स एप्प और मंदिर-मस्जिद से लेकर भारत-पाक की बातें करते हो न! यही है वह हवा जो डर बनकर माहौल में घुलती जा रही हैं।
"लेकिन वह तो 'जस्ट टाइम पास'....... ।" कहते- कहते मेरे अपने शब्द ही बीच में रह गए। दो दिन पहले की बातों में कहे शब्द मेरे जहन में सरगोशियां करने लगे थे। "अरे, इन विधर्मियों को तो सरहद पार खदेड़ देना चाहिए, आखिर देश मे अब तो अपनी सरकार है। अब भी न कर सके तो कब?"
.......... दूध वाला मेरे बर्तन में दूध डाल रहा था और मैं माहौल में घुलते डर को खत्म करने की शुरुआत आज ही उनके घर जाकर करने का निर्णय कर चुका था।
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(21). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
डर
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'40 प्रतिशत किराया बढ़ाने के लिए बसों की हड़ताल है.बस नहीं आएगी.' जैसे ही किसी ने कहा तो विनीता के होश उड़ गए. उस ने घड़ी देखी. सुबह के 8 बजने वाले थे और 12 बजे तक 52 किलोमीटर दूर नीमच जा कर परीक्षा देनी थी. गरीब मातापिता ने आनेजाने का किराया 120 रूपए ही दिया था. जिस में से 10 रूपए उस के नाश्ते के लिए थे.
अब किस साधन से जाए ? उस ने इधरउधर देखा. कई मातापिता अपनेअपने बच्चे को अपनेअपने साधन से ले कर जा रहे थे. वह असहाय से इधरउधर देख रही थी. कोई मिल जाए और उसे भी ले जा सकें.
' कोई बस नहीं आएगी ?' उस ने पास खड़े व्यक्ति से पूछा.
' नहीं !' वह व्यक्ति् बोला, ' यदि किराया बढ़ोत्तरी सरकार ने मान ली तो बस चल सकती है. अन्यथा नहीं ?'
वह बेचैन हो कर इधरउधर चक्कर काटने लगी. अब क्या होगा ? वह परीक्षा दे पाएगी ? या उस का साल बरबाद हो जाएगा. गरीब मांबापू उसे वैसे ही पढ़ाना नहीं चाहते हैं. यदि यह अंतिम साल बरबाद हो गया तो क्या होगा ? इसी सोच में डूबी किसी साधन के लिए निहार रही थी.
तभी एकाएक एक बस आ कर रूकी, ' चलो ! नीमच !'
उस की जान में जान आई. वह बस में चढ़ गई. मगर, मन में डर था कि बढ़ा हुआ किराया मांगा तो क्या होगा ?
' हां. आप को कहां जाना है ?' कण्डक्टर की आवाज सुन कर बढ़े किराए के भय से उस के दिल की धड़कन बढ़ गई .
'नीमच' कह कर उस ने 100 रूपए कण्डक्टर की ओर बढ़ा दिए.
' ये लीजिए,' कह कर कण्डक्टर ने रूपए लौटाए तो उस की आंखें फटी की फटी रह गई, ' मुझे तो नीमच जाना है. आप ने मुझे 70 रूपए लौटा दिए.' अचानक उस के मुंह से निकल गया.
' इस बस में नीमच के 30 रूपए ही लगेंगे. यह बस मालिक का आदेश है. इसीलिए तो यह हड़ताल के दौरान भी चल रही है.' कडक्टर ने कहा तो विनीता के चेहरे पर आई भय की हड़ताल खत्म् हो गई. वह केवल यही बोल पाई, ' केवल 30 रूपए.'
' हां,' और बस चल दी. मगर उस के डर की हड़ताल खत्म नहीं हुई थी. परीक्षा का भय उस के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा था. और बस के साथसाथ उस के दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी.
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वाह।.त्वरित संकलन पेशकश, रचनाओं पर.इस्लाह और.समीक्षाओं के साथ सफल संचालन हेतु हार्दिक बधाइयां आदरणीय मंच संचालक महोदय। मेरी रचना को तीसरे क्रम पर स्थापित करने के लिये हार्दिक आभार।
लघुकथा गोष्ठी के सफल आयोजन के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय योगराज सर जी ,मेरी रचना को संकलन में स्थान देने के लिए धन्यवाद ,आभार ,सादर
आदरणीय आरिफ़ जी आप ने मेरी लघुकथा को समय दिया ,उस पर उत्साह वर्धन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ,आभार ,सादर
आदरणीय तेज़ जी ,आदरणीय नीता जी ,आदरणीय योगराज सर जी ,बहुत बहुत धन्यवाद रचना पसंद करने के लिए ,कल धन्यवाद प्रेषित नहीं कर पायी थी ,आभार ,सादर
मुहतरम जनाब योगराज साहिब , ओ बी ओ ला इव लघुकथा गोष्ठी अंक _38 के त्वरित संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
हमेशा की तरह एक और लघुकथा गोष्ठी के सफल सञ्चालन और तीव्र संकलन की हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय योगराज प्रभाकर सर. साथ ही सभी लेखकों को भी बहुत-बहुत बधाई.
कल अपनी रचना में आयी अंतिम छह टिप्पणियों का प्रत्युत्तर मैं नहीं दे पाया था जिसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ. आ. तेजवीर सिंह जी, आ. बरखा शुक्ला जी, आ. वीरेन्द्र वीर मेहता जी, आ. नीलम उपाध्याय जी, आ. योगराज प्रभाकर सर एवं आ. नयना (आरती) कानिटकर जी का उनकी मूल्यवान टिप्पणियों के लिए हृदय से आभार एवं बहुत-बहुत धन्यवाद. आ. नयना जी से हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ कि उन्हें हमेशा ही मेरी रचना दो से तीन दफ़े पढ़नी पड़ती है. कोशिश करूँगा कि आगे से ऐसा न हो. आदरणीय योगराज सर, आपने जितनी सूक्ष्मता से मेरी लघुकथाओं की विशेषताओं को पकड़ा है इतना तो कभी मैंने भी ध्यान नहीं दिया. निश्चित ही आप बहुत बारीकी से चीजों को देखते हैं. "विषय का चुनाव" और "ग्लोबल अपील" सम्बन्धी बातें मैंने आप ही के लेखों से सीखी हैं. इसलिए इसका सारा श्रेय आपको है. वैसे ईमानदारी से कहूँ तो "शैली" पर अभी भी मेरी समझ बहुत स्पष्ट नहीं है. आपकी टिप्पणी का इंतज़ार मुझे पहले दिन से ही था पर दुर्भाग्य देखिए कि मैं वहाँ प्रत्युत्तर भी न दे पाया. सादर क्षमा सहित आपका पुनः बहुत-बहुत धन्यवाद एवं हार्दिक आभार. कल आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी की एक टिप्पणी का भी मैं कोई जवाब नहीं दे पाया था. उनका भी बहुत-बहुत आभार. मैं उनकी बात से सहमत हूँ कि लघुकथा सीखने वाले लघुकथाओं को न तो गंभीरता से पढ़ते हैं और न ही उन पर टिप्पणी करते हैं. इसमें मैं भी शामिल हूँ. कोशिश करूँगा कि इसे जल्द ही दूर करूँ. सादर.
अन्तिम नौ लघुकथाओं पर भी मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाया था. उन पर मेरी प्रतिक्रियाएँ इस प्रकार हैं :
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय महेंद्र जी ,आभार ,सादर
लघुकथा गोष्ठी के सफल आयोजन ,संचालन के लिये आपको व पूरी ओ बी ओ टीम को बधाईयां व शुभकामनायें ।कथा को संकलन में स्थान देने के लिये तहेदिल से शुक्रिया ,सादर आभार ।
ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - ३८ के कुशल संचालन, श्रेष्ठ संपादन एवम त्वरित संकलन/ प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।
आदरणीय योगराज सर लघु कथा पर आपके लेख को पढ़कर और लघु कथा गोष्ठी पर नियमित रचनाये पढ़कर ही कई प्रयास किये आज दूसरी बार रचना को संकलन मइं शामिल पाकर बहुत खुश हूँ आदरणीय मनन जी ने आयोजन के बाद हौसला अफजाई की ये तो बहुत अच्छा लगा आप सबके साथ लघु कथा का ये सफ़र बहुत आनंद दाई है मंच को सादर प्रणाम करते हुए इस संकलन पर हार्दिक बधाई
आदरणीय योगराज सर लघु कथा पर आपके लेख को पढ़कर और लघु कथा गोष्ठी पर नियमित रचनाये पढ़कर ही कई प्रयास किये आज दूसरी बार रचना को संकलन में शामिल पाकर बहुत खुश हूँ आदरणीय मनन जी ने आयोजन के बाद हौसला अफजाई की ये तो बहुत अच्छा लगा आप सबके साथ लघु कथा का ये सफ़र बहुत आनंद दाई है मंच को सादर प्रणाम करते हुए इस संकलन पर हार्दिक बधाई
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