आदरणीय साथिओ,
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बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय आरिफ़ जी ,बधाई आपको इस रचना के लिए ,सादर
हृदयतल से आभार आदरणीया बरखा जी ।
दोनों विषैले योद्धा भी मानव के आगे पस्त अच्छी कल्पनाशीलता हार्दिक बधाई आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी , कुछ भारी शब्दों के बिना भी कथा अपने सन्देश में सफल रहती
हृदयतल से आभार आदरणीया प्रतिभा पांडे जी । आपकी इस्लाह सर आँखों पर ।
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी, प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा कही है आपने. पर आप चाहें तो इसे और बेहतर कर सकते हैं. जैसे, यह (या ऐसा ही कुछ) दिखाकर कि काफ़ी वक़्त बीत गया पर साँप और बिच्छू के ज़हर को जंगल में किसी ने छुआ तक नहीं. दोनों हतप्रभ थे. तभी एक बन्दर आया और बोला कि "तुम्हारा ज़हर बेकार है. इससे ज्यादा विषैली चीज तो मेरी बोतल में है." साँप और बिच्छू ने आश्चर्य से पूछा कि "इसमें क्या है?" तो बन्दर ने कहा, "इंसान का खून." सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।बेहतरीन लघुकथा।
"आर्तनाद"
अब मैं और अर्जुन आमने-सामने थे. इस संग्राम में हम दोनों ही बराबर थे.कई बार पार्थ के धनुष की प्रत्यंचा काटने के बावजूद भी वे प्रकाश की गति समान पलक झपकते ही पुन: प्रत्यंचा चढ़ा लेते . हम दोनों के बीच दैवीय अस्त्रों के प्रयोग से घमासान चल रहा था. मैनें जैसे ही उसके शिरच्छेदन के लिए नागास्त्र का प्रयोग किया श्री कृष्ण ने उसी समय रथ को थोड़ा भूमि में धँसा लिया और वह बच गया. यद्दपि युद्ध गतिरोध पूर्ण हो रहा था किंतु मैं भी तब उलझ गया जब मेरे रथ का पहिया धरती में धँस गया. मैने धनंजय से बार-बार अनुरोध किया कि नियमों का पालन करते हुए बाण चलाना बंद करे किंतु----
मेरा शरीर अर्जुन के बाणों से छिद्रित रहा था. मैं असहाय सा था. मेरा अंतिम समय निकट जान पड रहा था. बहुत कुछ मेरे आँखो के आगे चल चित्र सा चल रहा था कि कैसे गुरु द्रोणाचार्य ने मुझे शस्त्र की शिक्षा इसलिए नही दी कि मैं क्षत्रिय नहीं था. परशुराम ने मुझे शिक्षा तो दी... मगर साथ ही श्राप से सब हर लिया. अपने अज्ञात माता-पिता के लिए मेरा हृदय हाहाकार करता , मैं शून्य से लड़ता,तड़पता अनगिनत प्रश्न करता रहा किंतु सब मौन.जब माता कुंती से अपने जीवन का इतिहास सुना तो मेरा हृदय विक्षिप्त सा हो गया.एक तथाकथित दिव्य पिता की संतान को कितना अपमान सहना पडा. मेरे पिता सदैव मुझे अपनी आँखो के सामने अपमानित,आहत पीड़ित देखते भी मौन रहे.
द्रौपदी स्वंयवर मे भी मेरे युद्ध कौशल, शरीर सौष्ठव को देखकर उसके आँखो मे आयी चमक को मैं आज तक नहीं भुला पाया.मेरे धनुष पर प्रत्यंचा चढाते ही घटोत्कच द्वारा सुतपुत्र कहकर मुझे अयोग्य ठहराया गया. द्रौपदी मुझे वर ना पाई . इसमें उसकी क्या ग़लती थी फिर भी अपमान के ताप में जलता मैं द्युतक्रिडा के वक्त उसे वैश्या कह गया और वही से महाभारत के युद्ध का बिगुल बज उठा.
सच को स्वीकार्य करुं तो हर बार मुझे छला मेरे आत्मभिमानी सहचरों ने मेरे पिता ने, गुरु द्रोण ने, परशुराम ने ,घटोत्कच ने और यहाँ तक कि पितामह ने भी जो सत्य के ज्ञाता होने पर भी दुर्योधन के साथ मेरी मित्रता पर आँखें मूंदे हुए थे.
"हे माते! मैं आज समझ रहा हूँ कि जब एक अभिमानी पुरूष ही पुरूष को छलने की कुटिल चाले चलता रहा तब आप एक कुँवारी माँ बनकर कैसे मुझे स्वीकार कर पाती. आपको वर के रुप में मुझे सौंपना भी एक छल का ही तो हिस्सा था वर्ना क्या वे इसका परिणाम जानते ना थे.
पितृसत्ता के साये में भाई द्वारा रोक देने पर द्रौपदी भी मुझे कैसे वरण करती. उसे वैश्या कहने का प्रतिफल ही ये महायुद्ध हैं.
" हे द्रौपदी! तुम वाचाल नहीं हो!. अपने पंच पतियों को ललकारने के लिए तुम्हारे हिम्मत के आगे आज में नतमस्तक हूँ.
मेरे सहित कुंती, द्रौपदी सभी दंभी पुरूषसत्ता के छल की शिकार हुई हैं.
"हे सर्वशक्तिमान ! मुझे क्षमा करना अगले जन्म मे मुझे माता कुंती के उदर--------एक स्त्री के साथ छल कि सजा......" तभी पार्थ के दैविय अस्त्र से शिरच्छेदन....
मौलिक व अप्रकाशित
विषयांतर्गत बहुत बढ़िया कथानक चुना है आपने। हार्दिक बधाई आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी। बहुत बढ़िया शिल्प, किंतु रचना तनिक क्लिष्ठ लग रही है।
आद0 नयना जी सादर अभिवादन। बढिया लघुकथा लिखी आपने। हाँ थोड़ा क्लिष्ट अवश्य हो गयी है। इस प्रस्तुति पर आपको बधाई देता हूँ।
आदरणीया नयना आरती जी आदाब,
प्रदत्त विषय पर प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
प्रदत्त विषय को परिभाषित करने का अच्छा प्रयास हुआ है आ० नयना ताई. लेकिन रचना में अभी कसावट की काफी गुंजाइश है. थोड़ी काट-छील करने से रचना और भी निखर कर सामने आयेगी. बहरहाल इस सद्प्रयास हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
महाभारत के युद्ध से उठाये गए इस कथ्य को अपनी कल्पना के साथ जोड़ विषय को परिभाषित करने का अच्छा प्रयास किया है आपने आदरणीय नयना कानिटकर जी.... ऐसी रचनाओं में बहुत ही सावधान और कसावट का ध्यान देना बहुत जरुरी होता है आदरणीया, क्यूंकि अक्सर ये रचना एक उपदेश और बोझिलता भरे कथ्य का अहसास बहुत जल्दी दिलाती है....बहरहाल इस सुन्दर प्रयास हेतु मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें नयना जी .
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