आदरणीय साथिओ,
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मुहतरम जनाब सुधीर साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघुकथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
प्रिय अनुज, प्रस्तुत लघुकथा में प्रयुक्त भाषा की सहजता और सादगी की वजह से इसमें जीवन यथार्थ का एक स्पन्दित परिवेश बन गया है जिससे लघुकथा की सम्प्रेषणीयता बहुत प्रभावशाली बनी है। /" कस्सम से चच्चा ! एक्को धेला नही देना पड़ेगा।"/ जैसे आम बोल में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा कथा बिल्कुल अपने आस-पास की ही कथा लग रही है। /" हमारा लालू क्या कोई छोटा व्यापारी है भला! चल मुफ़्त न सही पर तू मुझे सरकारी भाव पर ही चावल दे देना।"
सोहना का आग्रह सुनकर लालू पल भर के लिए सकपका गया फ़िर "आखिर आप बुड्ढे लोग कब तक चावल-दाल में ही अटके रहोगे? इंटरनेट का जमाना है चच्चा! इंटरनेट का!" कहते हुए साईकिल दौड़ा दी।/ पात्रों के संवादों से उनकी मनोदशा सहजे ही समझी जा सकती है। अनुज आपकी लघुकथाओं की 'साधारणता' ही उसे 'विशिष्टत' बनाती हैं। विषय से पूरी तरह न्यायसंगत इस प्रभावशाली रचना के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएं ।
हर बार की तरह सशक्त रचना कही है, हार्दिक बधाई स्वीकार करें भाई सुधीर जी
हार्दिक बधाई आदरणीय सुधीर जी ।बेहतरीन प्रस्तुति ।समाज का ढांचा कितनी जल्दी से उथल पुथल हो रहा है। अच्छा वर्णन।
आत्मग्लानि
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रतन काफी दिनों में अपनी बहन से मिलने गया।
"नमस्ते जीजी!"
"नमस्ते भाई! रतनू बड़े दिनों बाद याद आई,हमारी।"
बहन के चेहरे पर दर्द-सा झलक रहा था।उससे रहा न गया तो,"दीदी आप ठीक नहीं लग रही हो,कोई दिक्कत है क्या?"
"हाँsssss,अरे नहीं सब ठीक है।",वह बात को घुमाती हुई सी बोली।
"तू सुना,सब ठीक है न?और घर पर सब?"
वह सामान्य होने की कौशिश कर रही थी,पर भावुकता उसके शब्दों से साफ़ झलक रही थी।
रतन ने पुनः आग्रह किया,"जीजी!आप मुझसे कुछ छुपा रही हैं।बताओ न क्या हुआ?अपने भाई को भी नहीं बताओगी।"
अब वह अपने भावावेश को नहीं रोक पाई और फूट पड़ी।फिर सम्भलते हुए बोली,"तुम्हारे जीजा जी के जाने के बाद बड़ी मुश्किल से सम्भाला था खुद को।उनके इंश्योरेंश के पैसे से काम शुरु किया था,बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और घर खर्च ठीक-ठाक चला पा रही थी।"
"जी जी मैं जानता हूँ।आप में बड़ी हिम्मत है और आपने बड़े अच्छे से सब सँभाल भी लिया है।फिर..?"
"मैंने जो पैसा अपने बैंक खाते में जमा करवाया था वह अब नहीं रहा?मेरी सारी मेहनत लूट गई भाई।"
बोलते-बोलते वह फिर रोने लगी।
"एक फोन आया था बैंक से कि मेरा एटीएम बन्द होने वाला है।उन्होंने मुझसे जो पूछा मैंने बता दिया।उसके बाद मेरे खाते से सारे रुपए उड़ गए।मैंने एटीएम से पैसे निकलवाने की कौशिश की तो खाता खाली दिखाया।बैंक से मालूम हुआ कि मेरे साथ ठगी हुई है।"
"जी जी...।",अचंभित सा वह इतना ही बोल पाया।
"भैया!ऐसे कैसे कोई ठगी हो गई? मेरी तो समझ में ही सही से नहीं आ रहा।बैंक वाले कहते हैं कि किसी भी अनजान को अपने बैंक खाते के बारे में नहीं बताना चाहिए।ऐसे फोन बैंक से नहीं आते।",मासूमियत से वह बोलती ही जा रही थी।
रतन को उसकी बातें तीर की तरह चुभती हुई महसूस हो रही थी।उसे लग रहा था कि उसकी बहन को यह जख्म उसी ने दिए हैं।आत्मग्लानि से भर गया था।
उसका हृदय चित्कार उठा।अंदर से आवाज आई,"यह तेरे ही कर्मों का फल है।तूने भी तो इसी काम से मासूमों को.....।नहीं अब और नहीं।"
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मौलिक एवं अप्रकाशित
अच्छी कथा हुई है आदरणीय सतविन्द्र भैया | बधाई स्वीकारें |
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