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आ० सौरभ भाई जी, थोडा कहे को अधिक समझें - हार्दिक आभारI
आय हाय हाय, क्या खूबसूरती से समूचे मंजर पर एक अलग रंग चढ़ा दिया, सारा टेंसन बच्चों की तोतलाहट में अक्सर गुम हो जाया करता है, बहुत ही बेहतरीन लघुकथा, बहुत बहुत बधाई आदरणीय गुरुदेव योगराज प्रभाकर जी.
वाह, वाह , क्या भावपूर्ण रचना हुई है विषय पर, बिलकुल सारे दृश्य आँखों सामने घूमते चले गए। सच ही है, ये नन्हे मुन्हे ही तो हैं जो सारी थकान पल भर में गायब कर देते हैं। बहुत बहुत बधाई आ योगराज सर
डर
“उसके मानसिक रोग का उपचार हो गया|” चिकित्सक ने प्रसन्नता से केस फाइल में यह लिखा और प्रारंभ से पढने लगा| दंगों के बाद उसे दो रंगों से डर लगने लगा था| वो हरा रंग देखता तो उसे लगता कि हरा रंग भगवा रंग को मार रहा है और इसका उल्टा भी लगता| उसके चिकित्सक ने बहुत प्रयत्न किया था, दवाओं के साथ-साथ सवेरे सूर्य उगने के समय हरी घास पर उसे चलावाया तो वो घास और उगते सूर्य का रंग देखकर भाग जाता| उसे रंगों की पुस्तक भी दी गयी थी, लेकिन उसने उसे भी डर कर फैंक दिया|
फिर उसे उसके देश का झंडा दिखाया, जिसमें तीन रंग थे, भगवा से बिलकुल मिलता-जुलता केसरिया रंग उपर, हरा रंग नीचे और बीच में सफ़ेद रंग जो दोनों रंगों को जोड़े रखता था| दोनों रंगों को एक साथ देख वो झंडा अपने हाथों में लेकर गौर से देखता रहता था, यही उसका इलाज था| उसकी गर्दन हिलती देख चिकित्सक की तन्द्रा भंग हुई, उसने प्रेम से पूछा, "अब तो इन रंगों से डर नहीं लगता|" उसने इनकार में गर्दन हिला दी| चिकित्सक निश्चिन्त हुआ|
अचानक देखते ही देखते उसके चेहरे के भाव बदल गए, आँखें फ़ैल गयीं, आँसू निकल आये और साँसे तेज़ चलने लगीं| वो घबराने लगा, और अपने चिकित्सक का हाथ पकड़ कर बोला, "कहीं लोग अपनी तरह इसके भी रंग बदल देंगे तो...?" कहते हुए उसने झंडे को लपेटा और अपनी कमीज़ के अंदर छिपा दिया|
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बहुत-बहुत आभार आदरणीया जानकी जी, आपको लघुकथा का यह प्रयास ठीक लगा और आपने अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया|
जनाब चंद्रेश कुमार जी ,एकता के रंग में डूबी सुन्दर रचना के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
लघुकथा के इस प्रयास पर आपकी उपस्थिति और समय हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब तस्दीक अहमद खान साहब, आपकी टिप्पणी ने मेरी हौसला अफज़ाई की है|
क्या कहने हैं भाई चंद्रेश कुमार छतलानी जी, वाह वाह वाह!! यह होती है इशारों में अपनी बात कहने की कलाI रोगी का कुछ विशेष रंगों से डरना और फिर तिरंगे को देख कर उस दर से मुक्ति पाना बिना कहे बहुत कुछ कह जाता हैI उसके बाद तिरंगे को अपनी कमीज़ में छिपा लेना - उफ्फ्फ्फ़!! कितनी बुलंदी दे दी आपने अपनी लघुकथा को, आफरीन!! इस आयोजन को चार चाँद लगा दिए आपने इस प्रस्तुति के माध्यम सेI इस अप्रतिम, अद्वितीय एवं अनुकरणीय लघुकथा हेतु हार्दिक प्रशास्तिवाद स्वीकार करेंI
आदरणीय योगराज जी सर, आपका आशीर्वाद मिला, मेरी सबसे बड़ी यही सफलता है| इसी आशीर्वाद के बल पर लघुकथा के प्रयास कर लेता हूँ, रचनाएँ स्वतः ही सार्थक हो जाती हैं| नमन सर|
हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश जी!बेहतरीन प्रस्तुति!मैं कल से ही आपकी लघुकथा का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था!गज़ब की लघुकथा लिखी है भाई चंद्रेश जी!आपने तिरंगे के रंगों का जो विश्लेषण किया है ,लाज़वाब है!पुनः बधाई!
आदरणीय तेजवीर सिंह जी सर, रचना पर आपकी उपस्थिति और आशीर्वाद से मेरा मनोबल हमेशा ही उच्च होता है| आपका बहुत बहुत आभार आपको प्रयास ठीक लगा|
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