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देश का एक कटु सत्य बयां करती रचना ,प्रदत्त विषय को सार्थक करती ,हार्दिक बधाई आपको आदरणीया शशि जी
आदरणीय शशि जी, आपकी लघुकथा प्रभावी तो हुई है लेकिन संकल्प और सोच में बहुत अंतर हुआ करता है. शिक्षक का पद कोई किसी संकल्प के साथ नहीं ग्रहण करता. कभी कुछ लोग ग्रहण किया करते होंगे. या आजभी कुछ अपवाद स्वरूप एक-दो लोग मिल जायें. लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं. इस लघुकथा में भी संकल्प न होकर सोच है. जिसका पूरा न होना आपकी प्रस्तुति की नायिका को सालता है.
सहभागिता केलिए हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएँ
संकल्प--
पूरी रात सो नहीं पायी थी वो , बहुत कठिन मोड़ पर ला खड़ा किया था ज़िन्दगी ने । बहुत सी जिम्मेदारियाँ थीं जिनका निर्वाह करना बाक़ी था और अपने संस्कार भी थे जिनसे दूर होना एक तरह से उसकी आत्मा की मौत थी । एक बार फिर मैसेज का टोन बजा फोन में और वो वर्तमान में आ गयी । हिम्मत नहीं पड़ रही थी फोन देखने की , उसे पता था कि मैसेज या तो बहन का होगा या बॉस का और दोनों ही स्थितियों के लिए वो निर्णय नहीं कर पायी थी ।
कई दिनों से वो दोनों को टाल रही थी , जब भी बहन का मैसेज आता तो कमज़ोर पड़ने लगती थी । घर के एकलौते कमाऊ सदस्य होने के चलते उसकी पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी उसको उठाना अपना कर्तव्य लगता लेकिन कहाँ से करे इंतज़ाम । बड़ी मुश्किल से थोड़े पैसे बचते थे जिसे वो बिला नागा घर भेज देती थी , लेकिन या तो घर वालों को उसकी हालत का इल्म ही नहीं था , या वो यक़ीन नहीं करना चाहते थे । बॉस उसे व्यवहारिक बनने की सलाह देता और साथ ही साथ उसकी समस्याओं के हल का आश्वासन भी ।
आख़िरकार उसने फोन उठाया , मैसेज बहन का ही था और दो दिन में ही पैसे भेजने के लिए लिखा था । वो फिर से कमज़ोर पड़ने लगी और उसे लगने लगा कि अब दोनों को ही हाँ बोलने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था । अचानक उसकी नज़र सिरहाने रखी पिता के तस्वीर पर पड़ी और उसे उनके आखिरी समय में लिया गया संकल्प याद आ गया कि जिम्मेदारियाँ जरूर उठाना लेकिन अपने संस्कारों और इच्छाओं की कीमत पर नहीं ।
उसने अपना पहला संकल्प पूरा करते हुए दोनों को हाँ का जवाब भेज दिया और फोन रखते हुए उसने पिता की तस्वीर उल्टी कर दी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
मजबूरी जो न कराये वो बेहतर| यह भी तारीफ के काबिल है कि बहुत ही शालीन शब्दों में आपने अपनी बात कही है आदरणीय विनय जी सर| इस उत्कृष्ट लघुकथा के सृजन हेतु कृपया सादर बधाई स्वीकार करें|
टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ चंद्रेश जी
जीवन की कशमकश बहुत कुछ समझौते तले दबाने को मजबूर कर देती है\ अच्छी कथा आ. विनय जी\
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