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दोपहर का समय था।सूर्य की प्रचंड किरणें आग के गोले बरसा रही थी।रश्मि अभी-अभी काॅलेज से आई थी, जबकि रूपेश अपने आॅफिस से पहले ही आ चुका था।

परंतु आते ही आज फिर वही बात हो गई जो प्रायः इस समय घटित होती थी।प्रतिदिन लडाई जूते-चप्पलों को सही जगह पर रखने को लेकर होती थी।ज्योंही रश्मि ने रूपेश के जूतों को बैडरूम में देखा तो वह भडक उठी।
"अपने आप को एक मैनेजिंग डायरेक्टर कहते हुए शर्म नहीं आती, न जाने अपने जूतों को भी सही जगह पर मैनेज करना सिखोगे_ _ _ _।"
"तुम किसलिए हो? इतना भी नहीं कर सकती?
रूपेश कहाँ कम था, जैसे वह पहले से ही भरा बैठा था।उसने तपाक से जवाब दिया।
"मैं तुम्हारी नौकर हूँ क्या? तुमने मुझे समझ क्या रखा है?"
"औरत पैर की जूती होती है, बुजुर्ग कहते आए हैं और तुम्हें ही ये सब करना होगा, समझी!"
"वो समय जा चुका है,आज की नारी हूँ मैं और तुमसे अधिक कमाती हूँ।मैं उनमें से नहीं हूँ जो मार भी खाएगी और तुम्हारी चाकरी भी करेगी।"
झगडा और भी बढ सकता था मगर उसी वक्त दरवाजे की बेल बज उठी।रश्मि अनसुना करके पैर पटकती हुई फ्रैश होने के लिए टाॅयलट में घुस गई।
रूपेश ने दरवाजा खोला।
"हैलो, मिस्टर पांडे, हाऊ आर यू? फ्राॅम व्हेयर आर यू कमिंग? "रूपेश ने हंसकर अपना गुस्सा छुपाते हुए कहा।
"क्या यार रूपेश, ये कहाँ घर लिया है, इतनी तंग गलियां, तुम्हारा घर ढूंढना तो आकाश का तारा तोडकर लाने के बराबर है।"
दोनों आपस में बातें करते हैं और एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते हैं।इतने में रश्मि आती है-"लो आज फिर नया दोस्त, कौन है ये जो इतना खिलपटी हंस रहे हैं? "
रूपेश ने सहजता से कहा, "रश्मि ये मेरा बचपन का दोस्त पांडे है, गांव से आया है, काम ढूंढने के लिए।"
"मैं किसी पांडे-सांडे को नहीं जानती, न जाने कितने पांडे आते हैं और खाकर चले जाते हैं।"
पांडे समझ गया कि मियाँ-बीवी में अनबन है।अतः वह अधिक देर नहीं रूका और चला गया।वह पूरा दिन तकरार में बीता। दिन गुजरते गए और दोनों की तकरार दिन-ब-दिन बढती गई।जिसको जो भी बहाना मिलता, कोई भी मौका चूकना नहीं चाहता था। कहते हैं कि गृहस्थी की गाडी दोनों पहियों से चलती है, मगर ये तो दोनों ही एक दूसरे को रोकना चाहते हैं।बात जब बराबरी की हो तो अनावश्यक मुद्दे भी भयानक रूप धारण कर लेते हैं।जैसे-तैसे दोनों की गृहस्थी इस अंदाज में घिसट रही थी।

इसी बीच उनकी जिंदगी ने नई करवट ली। रश्मि प्रेग्नेंट हो गई। मगर झगडे और अधिक बढने लगे।डॉक्टर ने रश्मि को जो सलाह दी वह बिल्कुल उसके विपरीत करती,जैसे ऊंची हिल के सैंडिल पहनना,तंग कपडे पहनना, खानपान का ध्यान न रखना आदि। इन बातों को लेकर रूपेश और अधिक परेशान होता चला गया। रश्मि के मायके वाले आते तो वह और अधिक जलीकटी सुनाने लगती।एक दिन तो बात मार-पिटाई तक जा पहुंची और हद तो तब हो गई जब वह रूपेश को छोडकर और देख लेने की धमकी देकर मायके चली गई।

चार महीने गुजर गए।मगर रश्मि ने वापिस आने का नाम न लिया।रूपेश भी अपनी अकड में था।घर में जब व्यक्ति अकेला होता है तो उसे कोई सीधा काम तो सूझता नहीं। वो कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर। इसी तरह रूपेश भी अपनी टेंशन को मिटाने के लिए शराब का आदी हो गया।सिगरेट, तम्बाकू जिनको प्रयोग करते हुए दूसरों से भी नफरत करता था अब उसकी जिंदगी का हिस्सा बन चुके थे।दिन-प्रतिदिन उसका व्यसन बढता गया।पूरे घर में, बैड के नीचे, अलमारी के नीचे, कहीं भी देखो शराब की खाली बोतलें व सिगरेट के टोटके।घर में न आने का समय, न जाने का समय, न सोने का समय।सब कुछ अस्तव्यस्त।

उधर रश्मि कुछ दिन तो ठीकठाक रही मगर जो अपने पति के साथ ही न बना सकी, फिर भाई-भाभियों के साथ उसकी कैसे बनती।उसके बडे-ऊंचे अरमानों एवं इच्छाओं को पूरा करना उनके वश की बात नहीं थी।भाभियों के साथ उसकी नजर अक्सर टेढी रहने लगी।अब उस घर में भी रश्मि की हालत'मान न मान - मैं तेरा मेहमान' वाली थी।मगर फिर भी उसके नखरे ज्यों के त्यों थे। वक्त बदलते देर नहीं लगती।रश्मि ने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया।कन्या के जन्म लेते ही घर में खुशी की लहर दौड पडी।अस्पताल में साराखर्चा उसके भाइयों ने किया और भाभियों ने भी उसकी खूब खातिर की।कन्या के नामकरण का समय आया तो रश्मि की बडी भाभी ने कहा, "ये तो नवरात्रों में आई है,इसका नाम भी वैसा ही होना चाहिए।"
हाँ में हाँ मिलाते हुए उसके भाई ने कहा, "क्यों नहीं, यह तो साक्षात देवी है, दुर्गा होना चाहिए।क्यों रश्मि? "
रश्मि ने लेटे-लेटे हाँ में सिर हिलाया।
अब घर का माहौल बदल चुका था।घर का प्रत्येक सदस्य मानो बच्ची के बिना नहीं रह सकता था।बच्ची के लाड-प्यार में रश्मि सब कुछ भूल चुकी थी।दिन गुजरते देर नहीं लगती।दुर्गा ढाई साल की हो गई।वह अपनी बाल सुलभ क्रियाओं से पूरे घर को रंगीन बनाए रखती थी।चीजों को उठाकर पटकना, तोडना मरोडना, माँ के डांटने पर उसके गले से लिपट जाना सभी को आनंद देता था।सबके लिए वह एक खिलौना थी।

एक दिन अखबार में रश्मि ने 'बेटी बचाओ-बेटी पढाओ' कार्यक्रम के अंतर्गत 'सेल्फी विद डाॅटर' के बारे में पढा। उसने भी निश्चय कर लिया कि अपनी दुर्गा के साथ वह भी सेल्फी बनाकर अखबार को भेजेगी। अखबार में सेल्फी छपी और रश्मि की सेल्फी ने प्रतियोगिता में प्रथम स्थान हासिल किया।

रूपेश आॅफिस में बैठा चाय की चुस्कियों के साथ अखबार देख रहा था। अचानक उसकी नजर रश्मि और दुर्गा की सेल्फी पर पडी। फूल सी बच्ची को देखकर मन पसीज गया। उसके हृदय से अहम का जादू टूट चुका था। मनोवेग तेज हो चुके थे।पुरानी सभी बातों को भुलाकर उसने रश्मि को मनाने और मां-बेटी को घर लाने का इरादा कर लिया था। अगले ही दिन वह ससुराल पहुंचा।आंगन में दुर्गा को खिलौनों से खेलते हुए देखकर अपने अन्दर एक पिता की अनुभूति हुई।रश्मि भी दुर्गा के पास ही थी। अचानक रूपेश के मुख से निकल पडा-
"दुर्गा_ _ _!"
शब्द में जैसे जादू था। ऐसा जादू कि रश्मि की भी ईगो जाती रही।दोनो एक दूसरे को गले से लगा कर फूट-फूट कर रोने लगे।
रूपेश ने कहा, "रश्मि मैं अपनी ईगो में अंधा था सारी गलती मेरी है, मुझे माफ कर दो और मेरे साथ घर चलो।"
रश्मि ने कहा, "रूपेश! शायद आप ही नहीं, मैं भी गलत थी।साॅरी!"

सब गलतफहमियां, गीले-शिकवे दूर हो चुके थे।रश्मि और रूपेश दोनों दुर्गा को देखकर बहुत खुश हो रहे थे।
रश्मि के वृद्ध पिता अपनी बूढी आंखों से ये सब देख रहे थे।
वह बोले, "बेटा! अब तुम दोनों का अहम जाता रहा और तुम्हारा दोबारा मिलन का कारण तुम्हारी यह बेटी है।इसने तुम दोनों को फिर से मिला दिया। इस देवी का धन्यवाद करो।ईश्वर ने इसे तुम्हारे पास खुशियां बांटने के लिए ही भेजा है।"

रूपेश ने शर्मिंदा होकर कहा, " आप सही कह रहे हैं पापा जी! यदि मैं दुर्गा और रश्मि की सेल्फी को अखबार में नहीं देखता तो शायद हम कभी नहीं मिलते।मेरी बेटी ने ही मेरा घर उजडनो से बचा लिया।"

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार:सुरेश कुमार'कल्याण'

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 25, 2016 at 8:01am
आदरणीय समर कबीर जी हौसला देने के लिए शुक्रिया कृपया मार्गदर्शन करते रहें धन्यवाद
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 25, 2016 at 7:58am
Aadrniya Shubhranshu Pandey g aapka aabhar kripya margdarshan kre
Comment by Shubhranshu Pandey on April 24, 2016 at 8:25pm

आदरणीय सुरेश कुमार जी, 

कथा कई मोड़ से गुजरती हुई अपने चरम पर आती है. कुछ प्रसंग और बातें कथा के प्रवाह में रुकावट लगतीं हैं. 

सादर.

Comment by रामबली गुप्ता on April 20, 2016 at 11:55am
बहुत ही सुंदर कहानी आदरणीय सादर बधाई स्वीकार करें।
Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 19, 2016 at 5:16pm

सुरेश जी सुन्दर कहानी विभिन्न विषय समाहित नशा आदि से परिवार समाज टूट तो जाता ही है किसी भी तरह से परिणाम अच्छा रहा ऐसा ही हो तो आनंद और आये ..सुन्दर
भ्रमर ५

Comment by Samar kabeer on April 18, 2016 at 11:35pm
जनाब सुरेश कुमार "कल्याण" जी,आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी लघुकथा ,बधाई स्वीकार करें,मैं जनाब सतविंदर कुमार सिंह जी की इस बात से सहमत हूँ कि हिन्दी रचनाओं में ग़ैरों की भाषा के शब्दों का इस्तेमाल मुनासिब नहीं लगता ।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 15, 2016 at 2:42pm
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया नीता कासर जी आप जैसे महानुभावों का मार्गदर्शन मिलता रहे तो हम कुछ और कोशिश करेंगे।बहुत बहुत मेहरबानी।।
Comment by Nita Kasar on April 15, 2016 at 1:47pm
सेल्फ़ी विथ डाटर ने माता पिता को क़रीब ला दिया,संदेशप्रेरक कथा के लिये बधाई आद०सुरेश कुमार कल्याण जी ।जब तक अहं को ताक पर ना रखा जाय।रिश्तों की मिठास बरक़रार रखना मुश्किल काम है ।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on April 14, 2016 at 7:35pm
आदरणीय सतविंदर जी आपका अति धन्यवाद आप लोगों के सानिध्य में सीख रहा हूँ कुछ लिखना धीरे धीरे
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on April 14, 2016 at 4:13pm
एक सामयिक घटनाक्रम पर बखूब कलम चलाई है आपने आदरणीय सुरेश जी।शुरू से लेकर अंत तक बाँधे रखा इस कहानी ने।मुहावरों का भी यथोचित प्रयोग हुआ है जिससे शिल्प और अनोखा बन पड़ा है।
अंग्रेजी भाषा के कई शब्दों का भी अवसरानुसार प्रयोग हुआ है।क्या हिंदी साहित्य की समृद्धि के लिए हम अंग्रेजी भाषा के शब्दों से परहेज कर सकते हैं?यह आदरणीय सुधीजनों से भी जानने की इच्छा है।
//"वो समय जा चुका है,आज की नारी हूँ मैं और तुमसे अधिक कमाती हूँ।मैं उनमें से नहीं हूँ जो मार भी खाएगी और तुम्हारी चाकरी भी करेगी।"//
में //तुमसे अधिक कमाती हूँ// वाली बात का कहानी का बाकी हिस्सा सहयोग या समर्थन करता मालूम नहीं पड़ता।आगे का विवरण इस बात से मेल खाता प्रतीत नहीं हुआ।
मैं इतना भर समझ पाया।यह मेरा व्यक्तिगत मत है,कृपया अन्यथा न लें।सादर

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