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ग़ज़ल नूर की- ज़ालिम तुझ से डरे नहीं हैं..

22/ 22/ 22/ 22
ज़ालिम तुझ से डरे नहीं हैं,
हारे हैं .....पर मरे नहीं हैं.
.
और कुछ इक दिन ज़ुल्म चलेगा,
अभी पाप-घट भरे नहीं हैं. 
.
खोट है उस की नीयत में कुछ
पूरे हम भी खरे नहीं हैं.
.
कौन सी जन्नत कैसी क़यामात
ये सब मौत से परे नहीं हैं.
.
कहते हैं वो अपने मन की
पर मन की भी करे नहीं हैं.
.
गर्दभ होते ...घास तो चरते
साहिब.. घास भी चरे नहीं हैं.
.
बोल रहे हैं अपने कलम से
“नूर जी” चुप्पी धरे नहीं हैं.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक अप्रकाशित   

 

Views: 706

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 11, 2018 at 6:38am

धन्यवाद आ सुरेंद्र भाई

Comment by नाथ सोनांचली on March 11, 2018 at 6:01am

आद0 नीलेश जी सादर अभिवादन। बढिया मारक ग़ज़ल कही आपने। पढ़कर मजा आ गया। बहुत बहुत बधाई और दाद इस ग़ज़ल पर। सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 9, 2018 at 8:03pm

शुक्रिया आ. सलीम रज़ा साहब एवं आ. तस्दीक़ अहमद साहब...
यदि   मेरी ग़ज़ल आपको तक्तीअ के हिसाब से ग़लत लगती है या बह्र में फिट नहीं पाते हैं तो पहले जा कर आपको मीर तक़ी मीर साहब का गला पकड़ना चाहिये जिन्होंने मुझे उल्टा पुल्टा सिखा दिया...
.

आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं

कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है.....
.
मार्च का महीना है, आप सब आयकर भरेंगे... उसमें कुछ छूट भी आपको मिलेगी... छूट का लाभ न लेना आपकी सुप्तता का परिचायक है...ईमानदारी का नहीं....
वैसे ही मात्रिक बहर या अन्य बहर की छूट का   लाभ न ले   पाना आपकी समस्या है मेरी नहीं...
आशा है आप भविष्य में ग़ज़ल का आनन्द लेंगे और इस गणितीय  जोड़ घटाव से ऊपर उठेंगे..
सादर 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on March 8, 2018 at 10:07pm

जनाब नीलेश साहिब ,छोटी बह्र में कामयाब कोशिश की आपने, लेकिन बह्र धोका दे गई । मतले के हिसाब से ग़ज़ल की बह्र (मफ ऊलन-फ़ा इलुन-फ ऊलन) है ।उस हिसाब से शेर2, शेर3उला मिसरा,शेर4,शेर5उला,शेर 6और शेर7 ,बह्र में नहीं लगते , एक बार चेक करियेगा।

Comment by SALIM RAZA REWA on March 8, 2018 at 10:05pm
जनाब नीलेश जी,
ग़ज़ल के लिए बधाई,
तक़तिय खटक रही है या बह्र कुछ और ही है,,,
22/ 22/ 22/ 22 इस बह्र में फिट नहीं हो पा रही है.. देखिएगा
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 8, 2018 at 8:49pm

शुक्रिया आ. लक्ष्मण धामी जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 8, 2018 at 4:22pm

आ. भाई नीलेश जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 8, 2018 at 8:05am

शुक्रिया आ मोहम्मद आरिफ़ साहब

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 8, 2018 at 8:04am

शुक्रिया आ समर सर।

Comment by Mohammed Arif on March 7, 2018 at 2:47pm


कहते हैं वो अपने मन की 
पर मन की भी करे नहीं हैं. वाह! वाह!! क्या ख़ूब तंज़ है । मज़ा आ गया । बहुत ही उम्दा शे'र । हुज़ूर की ग़ज़ल जब भी आती है तो दिल को छू जाती । बेहतरीन मारक क्षमता वाली होती ।

                   हर शे'र मिसाइल की तरह दूर तक मार करने वाला । दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए आदरतीय नीलेश जी ।

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