२१२२/२१२२/२१२
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दर्पणों से कब हमारा मन लगा
पत्थरों के मध्य अपनापन लगा.
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लिप्त है माया में अपना ही शरीर
ये समझ पाने में इक जीवन लगा.
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तप्त मरुथल सी ह्रदय की धौंकनी
हाथ जब उस ने रखा चन्दन लगा.
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मूर्खता पर करते हैं परिहास अब
जो था पीतल वो हमें कुन्दन लगा.
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प्रेम में भी कसमसाहट सी रही
प्रेम मेरा आपको बन्धन लगा.
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जल रहे हैं हम यहाँ प्रेमाग्नि में
और उस पर ये मुआ सावन लगा.
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मंदिरों की सीढ़ियों पर भूख थी
चन्द्र भिक्षापात्र सा बर्तन लगा.
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माँ को अम्मी कह रहा था मित्र, बस!
उसका आँगन अपना ही आँगन लगा.
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निलेश "नूर"
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मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. महेंद्र जी
आदरणीय निलेश जी, हमेशा की तरह एक और बढ़िया ग़ज़ल पढने को मिली आपसे. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
धन्यवाद आ. योगराज सर,
राघव प्रियदर्शी जी शायद इस मंच पर कोई निजी अजेंडा लेकर आए हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य मँच के एक अति सम्माननीय सदस्य को निशाना बनाकर उनका अपमान करना हैI ऐसा व्यवहार न पहले बर्दाश्त किया गया है न ही भविष्य में किया जाएगाI अत: राघव प्रियदर्शी जी की सदस्यता तुरंत प्रभाव से समाप्त की जा रही हैI
आ. शिज्जू भाई,
आप मंच पर चल रहे एक कुत्सित खेल से व्यथित होकर टिप्पणी करने आये जिसके लिये आप का हार्दिक धन्यवाद..
राघव जी को मैंने भी एक जवाब दिया था लेकिन फिर डिलीट कर दिया क्यूँ कि मुझे जॉर्ज बर्नाड शॉ का एक quote याद आ गया जो बचपन में पढ़ा था और अबतक अमल में लाता हूँ...
quote कुछ यूँ था ..
"I learned long ago, never to wrestle with a pig. You get dirty, and besides, the pig likes it."
अत: मैंने इन सज्जन को इनकी सज्जनता के साथ यूँ ही कुढने देने का तय किया है ...
सादर
आ. अनुराग जी
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""अब आप अपनीवाली पे उतर आये हैं.""
नहीं हुज़ूर,,, मेरी वाली तो मेरी ग़ज़ल में है .. ये तो आप की वाली है ...जिसे आप सुनना पसंद करते हैं..
सादर
आ. योगराज सर,
मेरी भाषा और भावों को कृत्रिम कहा गया है,,, यदि माक़ूल जवाब न दूँ तो ये आरोप स्वीकार करने के जैसा घोर पाप होगा,,,
टिप्पणीकारों को चाहिए कि जो भाषा अथवा भाव वो समझ पाने में असमर्थ हैं, उस के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो कर टिप्पणी न किया करें ...
बाक़ी आप कहें तो रचना डिलीट कर देता हूँ मैं.....वो भी बिना किसी अफ़सोस के ..
सादर
आ० भाई निलेश नूर जी व अनुराग वशिष्ठ जीI क्या आपको नहीं लगता कि अब इस बहस को विराम दे देना चाहिए?
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