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गज़ल --आशिको के पास जाकर देखिये

2122 2122 212

मैकदों के पास आकर देखिये ।
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखिये ।।

वह नई उल्फ़त या नागन है कोई ।
गौर से चिलमन हटाकर देखिये ।।

सर फरोसी की तमन्ना है अगर ।
बेवफा से दिल लगाकर देखिये ।।

आपकी जुल्फें सवंर जायेगी खुद ।
आशिकों के पास जाकर देखिये ।।

आस्तीनों में सपोले हैं छुपे ।
हाथ दुश्मन से मिलाकर देखिये ।।

जल न् जाऊँ मैं कहीं फिर इश्क़ में ।

इस तरह मत मुस्कुराकर देखिये ।।

होश खोने का इरादा है अगर ।
ज़ाम साकी को पिलाकर देखिये ।।

दाग लग जाते हैं दामन पर यहां ।
यह तमाशा दूर जाकर देखिये ।।

फिर नशेमन पर गिरी हैं बिजलियाँ ।
बादलों को तिलमिलाकर देखिये ।।

हो रहा वह हुस्न भी नीलाम अब ।
बोलियां महँगी लगाकर देखिये ।।

चाहते गर लाश जिन्दा देखना ।
रात कोठों पर बिताकर देखिये ।।

--नवीन मणि त्रिपठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on April 12, 2017 at 10:07pm
मेरी मिहनत उस वक़्त सार्थक होगी जब आप पटल पर इसे संशोधित करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 12, 2017 at 9:18pm

आदरनीय नवीन भाई , अच्छी गज़ल की है . बधाइयाँ आपको.... आ. समर भाई जी की इस्लाह के बाद कुछ कहना नही रह जाता ... बस उनकी बातों का खयाल कीजिये ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on April 12, 2017 at 8:43pm
आ0 कबीर सर सादर आभार अति महत्वपूर्ण इस्लाह हेतु हार्दिक नमन ।
Comment by Samar kabeer on April 12, 2017 at 6:25pm
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'वो नई उल्फ़त या नागन है कोई
ग़ौर से चिल्मन हटाकर देखिये '
इस शैर के ऊला मिसरे में आपने 'उल्फ़त'को 'नागन'से जो तशबीह दी है वो सही नही है ,'ज़ुल्फ़'को नागन से तशबीह दी जाती है ।

तीसरे शैर के ऊला मिसरे में 'सरफरोसी'को "सरफ़रोशी" कर लें ।

'होश खोने का इरादा है अगर
जाम साक़ी को पिलाकर देखिये'
साक़ी को जाम पिलाकर होश कैसे खोएंगे भाई ?

'दाग़ लग जाये न दामन पर यहां
ये तमाशा दूर जाकर देखिये'
कौन सा तमाशा ?
सानी मिसरा यूँ करें :-
"हर तमाशा दूर जाकर देखिये"

'बोलियां मंहगी लगाकर देखिये'
बोलियों के लिये 'मंहगी'शब्द मुनासिब नहीं,ये मिसरा यूँ करें :-
"बोलियां ऊँची लगाकर देखिये "
बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 11, 2017 at 7:30pm

वाह वाह ...आदरणीय नवीन मणि साहेब ...... बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है.....बधाई स्वीकार करें 

Comment by Naveen Mani Tripathi on April 11, 2017 at 12:51pm
आ0 मोहम्मद आरिफ़ सादर आभार । सहमत हूँ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on April 11, 2017 at 12:49pm
आ0 लक्ष्मण धामी साहब सादर आभार ।
Comment by Mohammed Arif on April 11, 2017 at 12:08pm
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, बहुत उम्दा ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ है जैसे-सरफरोसी/सरफरोशी,सवंर/संवर,अशिको/आशिक़ों,दाग/दाग़,जिन्दा/ज़िन्दा । देखियेगा ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 11, 2017 at 11:40am

आदरणीय भाई नवीन जी, इस सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ।

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