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आदरणीय ब्रजेश कुमार जी आपकी गजल पढ़ी अच्छी लगी बधाई स्वीकार करें ।
जहां तक समर साहब का कथन है हम जो समझे वो इंगित ये है कि मलते के उला मे व्याकरण का दोष है टकरा कर सही वाक्य विन्यास होना चाहिये जो कि बहर के हिसाब से नहीं आ सका । इस कदर आदरणीय समर साहिब के अनुसार भर्ती का है इसे सुधार कर मतले के उला मिसरे को सही किया जा सकता है
एक त्परित सुझाव आपके भाव को ध्यान में रख कर इस प्रकार है
सदा पत्थर से टकरा कर मेरी बेकार जाती है
मगर सानी में अभी भी प्रश्न अनुत्तरित हे कि मुहब्बत के आह भरने से इबादत कैसे हारती है
आदरणीय गिरिराज जी की एक सलाह को आप भी ध्यान में रखें कि मतले को अपेक्षकृत अधिक समय दें शानदार मतला अच्छी गजल का स्वरूप निश्चित करता है
दूसरे शेर में हुजरे सही शब्द है, इसे सुधारने की जरूरत है । इस शेर सीधे सीधे शब्दों में कहे तो ( त्वरित सुझाव मात्र )
हमारे दर्द की आहें बुलाती हैं तुम्हे लेकिन
तुम्हारी बेहिसी को देख कर ये हार जाती हैं बाकी शुभ शुभ
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