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मैं अपना घर सम्भालूँ वो अपना घर संभालें

१२२२  १२२ १२२२  १२२ 

मैं अपना घर सम्भालूँ वो अपना घर संभालें 

ये बंदूकें हटा लें अमन से हल निकालें 

झुलसती अब है धरती नहीं जमता हिमानी 

अगन पीकर मही की चलो नदियाँ बचा लें 

गले रोजाना मिलते , मिलाते हाथ भी हैं 

कभी तो ऐ पड़ोसी दिलों को भी मिला लें 

कली मुरझा रही है सिसकते हैं ये भंवरे 

जहाँ में है अँधेरा चरागों को जला लें 

बहुत रूठे हुए हैं  हमारे अपने हमसे 

चलो खुद आगे बढ़कर के रूठों को मन लें 

बने हिन्दू मुसल्मॉ लडे सदियों से यूं ही 

दिवाली ईद अबकी चलो मिल के मना लें

 

इबादत मंदिरों में या मस्जिद में करें हम 

मगर कोशिस हो भीतर छुपा इंसा बचा लें 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 2, 2016 at 4:39pm

आदरणीय श्याम जी रचना पर  आपकी उत्साहित  करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 2, 2016 at 4:38pm

aआदरणीय समर कबीर सर ..आपकी प्रतिक्रिया से मुझे सदैव ही मार्गदर्शन और ऊर्जा मिलती है ..नव बर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 2, 2016 at 4:36pm

आदरणीय शेख जी आप सब के प्रोत्साहन से ही सतत लिखने का हौसला मिलता है सादर धन्यवाद के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 2, 2016 at 4:34pm

आदरणीय हरी प्रकाश जी रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on January 2, 2016 at 3:28pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई!
Comment by Samar kabeer on January 2, 2016 at 3:19pm
जनाब डा.आशुतोष मिश्र जी आदाब,बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ बधाई स्वीकार करें |
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 2, 2016 at 9:12am
बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी ।
Comment by Hari Prakash Dubey on January 1, 2016 at 7:38pm

सुन्दर भावनाओं से भरी एक सुन्दर रचना ,बधाई आ. डॉ आशुतोष मिश्र जी !सादर 

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