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ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती --आशुतोष

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ 

ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती

ये बारिश बँध के इन नदियों को भी बहने कहाँ देती

गजब का तैश अहदे नौ के इस आदम में देखा है

ये ऐठन आदमी को आज कुछ सहने कहाँ देती

हुए आजाद आजादी मिली कहने को बस हमको

मगर दहशत दिलों की कुछ हमें कहने कहाँ देती

ये बहशीपन ये गुंडागर्दी ये आतंक का साया

शराफत मेरी दुनिया में मुझे रहने कहाँ देती

महाजन का ही कर्जा माँ ने अब तक न चुकाया है

ससुरजी सोचिये मुफलिस वो माँ गहने कहाँ देती

खुदा का ध्यान रख माथा नवाया माँ के चरणों में

कृपा माँ की कोई दीवार है ढहने कहाँ देते  

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2016 at 10:09am

जयनित जी ..आपका परामर्श मेरे लिए बहुमूल्य हैं ...इस रचना पर फिर समय दूंगा ..प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल आभारी हूँ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2016 at 10:07am

लक्ष्मण भाई जी ..आपकी प्रतिक्रिया से बड़ा उत्साह मिला / हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2016 at 10:05am

आदरणीया कांता जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2016 at 10:05am

आदरणीय समर कबीर जी ..रचना पर आपका मार्गदर्षन हमेशा मिलता है ..इससे नई ऊर्जा मिलती है ...आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहे इस कामना के साथ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 26, 2016 at 10:03am

आदरणीय पंकज जी ..आपका सुझाव मेरे लिए अमूल्य है ..मैं आपकी बात से सहमत हूँ ..मतले के शेर क  दुसरे मिसरे पर आपके परामर्श का इंतज़ार रहेगा ..हार्दिक धन्यवाद के साथ सादर 

Comment by जयनित कुमार मेहता on February 23, 2016 at 10:11pm

आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने। हार्दिक बधाई आपको।

ग़ज़ल को थोड़ा वक़्त और देंगे तो ये रचना निखर जाएगी।

सादर!!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 23, 2016 at 11:42am

आ0 आशुतोष कुमार जी, सुन्दर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई l

Comment by kanta roy on February 23, 2016 at 10:08am
बहुत ही खूबसूरत गजल बनी है यह आपकी आदरणीय आशुतोष कुमार जी । बहुत बहुत बधाई आपको ।
Comment by Samar kabeer on February 22, 2016 at 3:40pm
जनाब डॉ आशुतोष मिश्रा जी आदाब,,अच्छी ग़ज़ल कही आपने मुबारकबाद क़ुबूल करें !
जनाब पंकज जी के सुझाव पर ध्यान ज़रूर दें !
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 22, 2016 at 2:26pm
मत्ले के दूसरे मिसरे में "बन्ध" के कारण मात्रा दोष आ रहा है।

महाजन का ही कर्जा आज तक भी माँ के सर पर है।(सुझाव)

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