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माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने - गजल (लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’)

2212 1211 2212 12

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पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं
कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1

रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे  गमों  से  रोज ही  दो   चार  हम भी हैं /2

माना कि धूप में भी तो साया नहीं बने
तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं /3

तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /4

जब से  कहा  है आपने  बेताज हो गए
कहने लगे हैं लोग कि गलहार हम भी हैं /5

पत्थर उठा के सोच रहा आइना हैं क्या
टूटे न  जलजले  में वो  दीवार  हम भी हैं /6

21 दिसम्बर
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2015 at 10:39am

आ० भाई श्याम नारायण जी ग़ज़ल का अनुमोदन करने के लिए हार्दिक आभार l


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Comment by rajesh kumari on December 23, 2015 at 7:26pm

तू ही नहीं अकेला जो दरिया के घाट पर
नजरें उठा के देख कि इस पार हम भी हैं /...वाह्ह्ह्ह  बहुत सुन्दर 

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आ० लक्ष्मण भैया जी 

Comment by Ravi Shukla on December 23, 2015 at 1:32pm

आदरणीय लक्ष्मण जी , शानदार ग़ज़ल हुई है. दाद ओ मुबारकबाद कुबूल करें

रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे ( होते) गमों  से  रोज ही  दो   चार  हम भी हैं    क्‍या ये शब्‍द अर्थ के निकट लग रहा है । कृपया देख्‍ेा

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 23, 2015 at 10:13am
अच्छे अश’आर हुए हैं धामी साहब, दाद कुबूल करें
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 22, 2015 at 5:29pm
आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई हाज़िर है

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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2015 at 12:11am

आदरणीय लक्ष्मण सर जी, शानदार ग़ज़ल हुई है. दाद ओ मुबारकबाद 

Comment by Samar kabeer on December 21, 2015 at 10:41pm
जानब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी,आदाब,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है आपकी,अच्छे अशआर निकाले हैं आपने इस ज़मीन में,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
एक मिसरे की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :–

"अपने जहन में देख मगर यार हम भी हैं"

:– इस मिसरे में आपने 'जहन' शब्द लिया है,सही शब्द है "ज़ह्न" ,एक मिसरा सुझाव के तौर पर पेश कर रहा हूँ ,देख लीजियेगा :–

"तू देख अपने ज़ह्न में,ऐ यार हम भी हैं"

बाक़ी शुभ–शुभ ।
Comment by Sushil Sarna on December 21, 2015 at 8:46pm

पतझड़ में अब की बार जो गुलजार हम भी हैं
कुछ कुछ चमन के यूँ तो खतावार हम भी हैं /1
रखते हैं चाहे मुख को सदा खुशगवार हम
वैसे गमों से रोज ही दो चार हम भी हैं /2

निःशब्द हूँ आदरणीय आपकी कल्पना,सोच और खूबसूरत इस ग़ज़ल की प्रस्तुति पर .... दिल से शे'र दर शे'र दाद कबूल फरमाएं।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 21, 2015 at 8:06pm
बुलंद हौसले और हौसला अफज़ाई को तवज्जो देती हुई ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए तहे दिल बहुत बहुत मुबारकबाद जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहब ।
Comment by Shyam Narain Verma on December 21, 2015 at 2:50pm
 इस सुंदर ग़ज़लक़े लिए हार्दिक बधाई

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