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तरही ग़ज़ल -- 'चलते चलते हम कहाँ तक आ गए ' ( दिनेश कुमार )

२१२२-२१२२-२१२

तीर-ए-अब्रू जब कमाँ तक आ गए
उनकी ज़द में जिस्मो-जाँ तक आ गए
.
तिश्नगी-ए-बे-कराँ तक आ गए
अब्र-ए-तर मेरे मकाँ तक आ गए
.
दाग़ सीरत पर लगे थे और हम
बस्ती-ए-सूरत-गराँ तक आ गए
.
रफ़्ता-रफ़्ता कम हुआ ज़ब्त-ए-अलम
दर्द-ए-जाँ मेरी ज़ुबाँ तक आ गए
.
हम को भी इक गुलबदन की चाह थी
हम भी कू-ए-गुलिस्ताँ तक आ गए
.
मंज़िल-ए-मक़सूद भी दिखने लगी
हम जो मीर-ए-कारवाँ तक आ गए
.
याद आया जब हमें बचपन बहुत
हम खिलौनों की दुकाँ तक आ गए
.
क़ातिलों के पास थी दौलत अपार
उनके हक में हुक्मराँ तक आ गए
.
मौसम-ए-गुल सिर्फ़ यादों में है अब
उम्र गुज़री, हम ख़िज़ाँ तक आ गए
.
साथ अपने अब न कोई हमक़दम
' चलते चलते हम कहाँ तक आ गए '
.
हौसला जिनके परों में था 'दिनेश'
वो परिन्दे आसमाँ तक आ गए
.
.
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 19, 2015 at 10:36am

बहुत ख़ूब आदरणीय दिनेश जी, ख़ूबसूरत अश’आर से सजी इस ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल कीजिए


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 18, 2015 at 7:20pm

वाह्ह्ह  वाह  बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है दिनेश भैया हर शेर लाजबाब हुआ ,दिल से दाद कुबूलें. 

Comment by vijay nikore on August 18, 2015 at 1:09pm

 बहुत आनन्द आया आपकी गज़ल पढ़ कर। बधाई।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2015 at 10:36am

क़ातिलों के पास थी दौलत अपार
उनके हक में हुक्मराँ तक आ गए
आ0 भाई दिनेश जी, बहुत सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on August 17, 2015 at 3:10pm
जनाब दिनेश कुमार जी आदाब,बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आपने सुनकर दिल बाग़ बाग़ हो गया,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 17, 2015 at 12:29pm

आदरणीय दिनेश भाई जी, शानदार ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

Comment by Ravi Shukla on August 17, 2015 at 10:43am

आदरणीय दिनेश जी

शानदार ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें । शेर दर शेर क्‍या रवानी है ग़जल में ।

तिश्नगी-ए-बे-कराँ तक आ गए
अब्र-ए-तर मेरे मकाँ तक आ गए... तिश्‍नगी और अब्र पर सकारात्‍मक बयान बहुत खूब

रफ़्ता-रफ़्ता कम हुआ ज़ब्त-ए-अलम
दर्द-ए-जाँ मेरी ज़ुबाँ तक आ गए......हकीकत है दिनेश जी जब्‍त की भी एक हद होती है

याद आया जब हमें बचपन बहुत
हम खिलौनों की दुकाँ तक आ गए..... बचपन को बयां करता शेर, आपका अपना अंदाज

साथ अपने अब न कोई हमक़दम
' चलते चलते हम कहाँ तक आ गए '  शायद मीर ए कारवां  तक  आने का प्रतिफल है ये कि हम कदम अब कोई नहीं है  : - )


हौसला जिनके परों में था 'दिनेश'
वो परिन्दे आसमाँ तक आ गए  .... इस भाव पर बहुत शेर कहे गये है इसलिये इस पर केवल शुक्रिया ।  पूरी ग़ज़ल पर दिली दाद कुबूल करें दिनेश जी । आभार ।

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