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ग़ज़ल -- कौन है यह रूबरू.... दिनेश कुमार

2122-2122-2122-212

वक़्त के गुज़रे हुए लम्हात की तफ़्सीर है
मेरी हस्ती मेरी माँ के ख़्वाब की ताबीर है

मुझको दुनिया भर की दौलत से नहीं कुछ वास्ता
मेरे क़दमों में पड़ी अलफ़ाज़ की जागीर है

आइना देखा जो बरसों बाद, मैं हैरान हूँ
कौन है यह रूबरू, किस शख़्स की तस्वीर है

अहले महफ़िल के लिए बेशक मआनी और हो
शाइरी मेरे ग़मों की पुरख़लिश तहरीर है

नित नई परवाज़ केवल ख़्वाब ही रह जाएगा
इन परिन्दों को बताओ बुज़दिली ज़ंजीर है

भूख बेकारी गरीबी क्यूँ नहीं कम हो रही
हुक़्मराँ की गर नहीं तो किसकी ये तक़्सीर है
.
शे'रगोई का न फिर उस्ताद दुनिया में हुआ
आज भी सबकी ज़ुबाँ पर नाम केवल 'मीर' है

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Ravi Shukla on September 7, 2015 at 3:09pm

आदरणीय दिनेश जी । आदाब, बहुत ही उम्‍दा ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर क्‍या बात कही है आपने । समर साहब की इस्‍लाह से शेर और खूबसूरत हो गया है ।

अहले महफ़िल के लिए बेशक मआनी और हो
शाइरी मेरे ग़मों की पुरख़लिश तहरीर है         बहुत खूब ।

पूरी ग़ज़ल बहुत सुन्‍दर हुई है बधाई स्‍वीकार करें ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on September 7, 2015 at 2:55pm
वाह वाह वाहभाई जी बहुत दिनों बात मंच पर आया हूँ । आते ही आपने मन मोह लिया । कमाल कमाल। ी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 6, 2015 at 9:01pm

आदरनीय दिनेश भाई , लाजवाब ग़ज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Samar kabeer on September 4, 2015 at 11:27pm
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

इस मिसरे की तरफ़ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा :-
"पास मेरे बेहतरीन अलफ़ाज़ की जागीर है"

ये मिसरा लय में नहीं है,उचित लगे तो इस तरह कर लें:-

"मेरे क़दमों में पड़ी अल्फ़ाज़ की जागीर है"
Comment by gumnaam pithoragarhi on September 4, 2015 at 8:18pm


मुझको दुनिया भर की दौलत से नहीं कुछ वास्ता
पास मेरे बेहतरीन अलफ़ाज़ की जागीर है

वाह भाई जी क्या खूब ग़ज़ल ,,,,,,,,,, बधाई स्वीकारें ,,,,,,

Comment by मोहन बेगोवाल on September 4, 2015 at 5:45pm

आदरणीय दिनेश जी,ग़ज़ल में कुछ अल्फाज उर्दू न जानने वालों  के लिए समझना मुश्कल होता है, सभी अश'आर लाजवाब - बधाई कबूल करें 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 4, 2015 at 4:28pm

आदरणीय दिनेश भाई जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

अलिफ़ वस्ल का बढ़िया प्रयोग किया है.

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