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चारसू उठता धुंआ ही अब नजारों में

२१२२  २१२२   २१२२२

 

रहनुमा वो कह गया है क्या इशारों में

चारसू उठता धुंआ ही अब नजारों में

 

धुंध कुछ छाई है ऐसी अब फलक पे यूं

रोशनी मद्दिम सी लगती चाँद तारों में

 

साजिशों की आ रही है हर तरफ से बू

छुप के बैठी हैं खिजाएँ अब बहारों में

 

खेलते जो लोग थे तूफाँ में लहरों से

वक़्त ने उनको धकेला है किनारों में

 

है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब

क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में

 

हो गयी काफूर अब मुस्कान ओंठों से

हौसला दिखता नहीं अब आबशारों में

 मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 29, 2015 at 12:44am

आदरणीय आशुतोष जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाये. 

आखिरी शेर के  मिसरा-ए-उला और सानी में रब्त नहीं कर पा रहा कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 28, 2015 at 10:10pm

वाह वाह बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है, मैं दो अशआर कोट करना चाहूँगा जो मुझे अत्यधिक पसंद आयें.

//

खेलते जो लोग थे तूफाँ में लहरों से

वक़्त ने उनको धकेला है किनारों में

 

है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब

क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में//

बहुत बहुत बधाई आदरणीय डॉ आशुतोष जी.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 28, 2015 at 10:01pm

उत्कृष्ट i बहुत रमणीय , सुंदर i

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 28, 2015 at 9:10pm
प्रशंसनीय , प्रशंसनीय, प्रशंसनीय। अति सुन्दर ग़ज़ल, बहुत बहुत बधाई, आदरणीय डॉ ० आशुतोष मिश्रा जी, सादर.
Comment by Hari Prakash Dubey on January 28, 2015 at 8:07pm

आदरणीय डॉ आशुतोष जी हार्दिक बधाई ,शानदार ग़ज़ल है ...

खेलते जो लोग थे तूफाँ में लहरों से

वक़्त ने उनको धकेला है किनारों में....बहुत खूब ! सादर 

Comment by Sushil Sarna on January 28, 2015 at 7:51pm

रहनुमा वो कह गया है क्या इशारों में

चारसू उठता धुंआ ही अब नजारों में

 

धुंध कुछ छाई है ऐसी अब फलक पे यूं

रोशनी मद्दिम सी लगती चाँद तारों में

साजिशों की आ रही है हर तरफ से बू
छुप के बैठी हैं खिजाएँ अब बहारों में

वाह क्या बात है आदरणीय आशुतोष जी .... गज़ब के अशआर पिरोये हैं आपने इस बेहतरीन ग़ज़ल में … हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं सर।

Comment by gumnaam pithoragarhi on January 28, 2015 at 6:21pm

 

है नहीं महफूज दुल्हन डोलियों में अब

क्या पता अहबाब ही हों इन कहारों में

साजिशों की आ रही है हर तरफ से बू

छुप के बैठी हैं खिजाएँ अब बहारों में

 

 

वाह खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई वाह

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