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कितने ही लोगों से हमने हाथ मिलाये

२१२२    २१२२     २११२२

 

कितने ही लोगों से हमने हाथ मिलाये

गम में डूबे जब भी कोई काम न आये

 

दिल तन्हा ये रो के अपनी बात बताये  

कैसे उल्फत हाय तन में आग लगाये

 

तोहफे में दे सका जो गुल भी न हमको

आज वही फूलों से मेरी लाश सजाये

 

जिनके दिल में गैरों की तस्वीर लगी है

करके गलबहिया वो सर सीने में छुपाये

 

दिल की बातें दिल ही जब समझे न यहाँ पर

क्यूँ  तन्हा फिर भीड़ में दिल खुद को न पाये

 

वो भी मिलता हमसे अंजानो कि तरह ही

जिसने बालू पर थे घर भी साथ बनाये

 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 24, 2014 at 12:15pm

आदरणीय सौरभ सर..आपके स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल धन्यवाद ...आपकी प्रतिक्रियाए कभी उर्जा से लबरेज करती हैं उत्साहित करती है ..तो कभी आत्म चिंतन के लिए बिबश करती हैं ..अतिउत्साह और जल्द्वाजी से बचने का सन्देश देती हैं..इसलिए मुझे क्या सबको ही आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहता है ..सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 23, 2014 at 11:31pm

रवायती ग़ज़लों का एक अपना अंदाज़ होता है. इस अंदाज़ के लिए बधाई आदरणीय..

दाद कुबूल कीजिये

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 23, 2014 at 2:21pm

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..आदरणीय शिज्जू जी ..ग़ज़ल के एक दो जानकार लोगों से बात की थी ..मैं भी इस प्रयोग को लेकर शंकित हूँ ..निश्चित ही इस प्रश्न का उत्तर बिद्वत जानो से ही मिलेगा ..मार्गदर्षन के लिए तहे दिल धन्यवाद के साथ .सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on May 21, 2014 at 10:38am

वो भी मिलता हमसे अंजानो कि तरह ही

जिसने बालू पर थे घर भी साथ बनाये

सुन्दर , अति सुन्दर......................


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 20, 2014 at 9:37pm

आदरणीय डॉ आशुतोष सर बह्र तो अच्छा निभाया है आपने, लेकिन आखिरी रुक्न के लिये मैं भी शंकित हूँ। 

Comment by coontee mukerji on May 20, 2014 at 8:28pm

 

तोहफे में दे सका जो गुल भी न हमको

आज वही फूलों से मेरी लाश सजाये.....क्या बात है. दुनियादारी का यह कैसा तोहफ़.....शायद....

वो भी मिलता हमसे अंजानो कि तरह ही

जिसने बालू पर थे घर भी साथ बनाये.......आपके सुंदर गज़लों उसका जवाब भी छिपा हुआ है.....आपको बहुत बहुत बधाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 20, 2014 at 6:39pm

आदरणीय आशुतोष भाई , अच्छी गज़ल कही है , बधाइयाँ , आखिरी रुक्न के विषय मे शंका है भाई जी , बाक़ी सही ग़लत जानकार बतायेंगे ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 20, 2014 at 5:39pm

जिसने तोहफे में गुल न दिया वही फूलो से लाश सजाये

इस अनेकार्थी अभ्व्यक्ति के लिए  डाक्टर  साहेब को बधाई

Comment by gumnaam pithoragarhi on May 20, 2014 at 4:22pm

खुबसूरत गजल कही बधाई  आशुतोष जी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Comment by vijay nikore on May 20, 2014 at 11:38am

इस अच्छी गज़ल के लिए बधाई, आदरणीय।

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