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लघुकथा : चलन (गणेश जी बागी)

स्कूल के कुछ दोस्त मिलकर घर में पड़े पुराने कम्बल गरीबों में बाँटने को निकले। कम्बल बाँट कर वे ज्यों ही वापस चलने को हुए, एक बुजुर्ग ने आवाज़ लगाई ………

"बबुआ जी तनिक सुनो"

"जी बाबा, आपको तो कम्बल दे दिया न ?"

"जी बबुआ जी, कम्बल तो दिया और फिर आप लोग ऐसे ही चल दिए"
"ऐसे ही चल दिए मतलब ?"

"बबुआ जी, पिछले तीन दिन से चमचमाती गाड़ियों में साहब लोग आते हैं, कम्बल बाँट कर फ़ोटो खिचवाते हैं और फिर २०-२० रूपया देकर कम्बल वापस ……… "

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Abhinav Arun on December 24, 2013 at 3:09pm

आज के तथाकथिक दिखावे की मदद करने वालों के कृत्य  करारा  प्रहार करती लघुकथा  आ।  श्री  बागी जी , साधुवाद , और शुभकामनायें !!


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 24, 2013 at 2:56pm

हकीकत को कलमबंद करने का बेहद सुन्दर प्रयास हुआ है भाई गणेश बागी जी. रचना विषय के साथ साथ शीर्षक के साथ भी पूरा न्याय कर रही है. मेरी दिली बधाई प्रेषित है.     

Comment by Meena Pathak on December 24, 2013 at 2:48pm

ओह !!

बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर कटाक्ष करती लघुकथा हेतु | सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 24, 2013 at 1:50pm

बहुत जबरदस्त कटाक्ष असंवेदन शीलता की सारी हदें पार कर दी इन चमचमाती एक शब्द और जोड़ दूँ (रेड बत्ती वाली)कार वालों ने,ये कैसी समाज सेवा है बहुत-बहुत बधाई इस शानदार लघु कथा के लिए.   

Comment by Shyam Narain Verma on December 24, 2013 at 12:48pm
बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय, हार्दिक बधाई स्वीकारें....
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 24, 2013 at 12:32pm

आह ----- आह----- आह-----

आदरणीय बागी जी  i लगता है  ' लघु कथा ' आपकी और आदरणीय प्रभाकर जी की USP है i तभी तो हमेशा एक सशक्त , मर्मस्पर्शी  शब्द चित्र लेकर आते  है i अभिभूत हूँ श्रीमन--------- i तथाकथित  वदान्य लोगो के दोहरे चरित्र से घिन आती है i इस जुगुप्सा को आपकी कथा ने और अधिक भास्वर कर दिया है i    गढ़न , कहन  सभी अनिवर्चनीय  i बहुत बहुत शाधुवाद i

Comment by anurag trivedi ehsaas on December 24, 2013 at 10:37am
बेहद भावपूर्ण व् मर्मस्पर्शी ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 24, 2013 at 10:23am

बताइये समाज में ऐसे भी समाज सेवी होते हैं?
आदरणीय गणेश जी, सफेद पोशों के चेहरे से नकाब उतारती इस लघुकथा के लिये बधाई स्वीकार करें


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 24, 2013 at 9:51am

आदरणीय सलीम रज़ा जी, बहुत दिनों बाद आपका आना हो रहा है, लघुकथा पर आपकी उत्साहवर्धन करती टिप्प्णी प्राप्त हुई, बहुत ही अच्छा लगा, बहुत बहुत आभार |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 24, 2013 at 9:49am

आभार वीनस भाई |

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