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छलकती आँखें हैं साकी हसीं इक जाम हो जाये

१२२२   १२२२   १२२२    १२२२

छलकती आँखें हैं साकी हसीं इक जाम हो जाये

बना दो रिंद दुनिया को सुहानी शाम हो जाये

 

जुदा मजहब के लोगों को मिला दे आज ऐ साकी

तरीका कोई भी हो आज दिलकश काम हो जाये

 

हमें हिन्दू मुसल्मा कह लड़ाते हैं भिड़ाते हैं

करो कोई जतन ऐसा की हिंदी नाम हो जाये

 

हजारों फूल गुलशन में जुदा हैं रूप रंगत भी

मगर खुशबू जुदा मिलकर हसीं पैगाम हो जाये

 

न जाने किसकी साजिश है बहाते हम लहू अपना

करो मिलकर दुआ साजिश सभी नाकाम हो जाये

 

हमारे बंधू बांधव ही बने हिन्दू बने मुस्लिम

मुखौटों में तो कोई भी यूं ही गुमनाम हो जाये

 

वो आयें शौक से मंदिर करें मस्जिद में हम सजदा

हो काशी उनका औ काबा हमारा धाम हो जाये

 

मिलो बकरीद में सबसे मनाओ साथ दीवाली

मिलो ऐसे की घर अहबाब के कुहराम हो जाये

मौलिक व अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 20, 2013 at 8:20pm

जुदा मजहब के लोगों को मिला दे आज ऐ साकी

तरीका कोई भी हो आज दिलकश काम हो जाये-----बहुत सुन्दर शेर हुआ 

भाईचारे के भाव को केन्द्रित करके लिखी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी सभी अशआर बढ़िया हुए हैं दाद कबूलें 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 20, 2013 at 11:18am
आदरणीय आशुतोष भाई , बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है , भाव बहुत अच्छे है ।वो आयें शौक से मंदिर करें मस्जिद में हम सजदा
हो काशी उनका औ काबा हमारा धाम हो जाये -- लाजवाब , ये सभी का सपना है -- आपको अनेकों बधाइयाँ ॥ साजिस को साजिश कर लीजियेगा ॥
Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 20, 2013 at 9:11am

सुंदर  भावपूर्ण ग़ज़ल.. बधाई 

Comment by vandana on December 20, 2013 at 7:42am

हजारों फूल गुलशन में जुदा हैं रूप रंगत भी

मगर खुशबू जुदा मिलकर हसीं पैगाम हो जाये

बेहतरीन सोच की खुशबू इस ग़ज़ल में आदरणीय आशुतोष जी 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2013 at 7:14am

आदरणीय आशुतोष भाई

सुन्दर गजल हुइ है।  बधाई स्वीकार करें।  सादर,

Comment by Ketan "SAAHIL" on December 19, 2013 at 10:30pm
AAADARNIYA AASHUTOSH JI PAHLE TO AAPKO BADHAAI DETA HOO AAPKI JAANDAAR SHAANDAAR MSG DENE WALI GHAZAL KI KOSHISH KO.

AUR DUSARI BAAT JO BEHR AAPNE UPAR DI HAI USPAR MATLE KA DUSRA MISARA MUJHE THODA SAMAJH NAHI AA RAHA HAI TO KRIPYA MARG DARSHAN KARE. SAADAR
Comment by कल्पना रामानी on December 19, 2013 at 10:01pm

हमें हिन्दू मुसल्मा कह लड़ाते हैं भिड़ाते हैं

करो कोई जतन ऐसा की हिंदी नाम हो जाये

 

हजारों फूल गुलशन में जुदा हैं रूप रंगत भी

मगर खुशबू जुदा मिलकर हसीं पैगाम हो जाये...

शानदार गजल के लिए, बहुत बहुत बधाई आदरनीय आशुतोष जी

Comment by SALIM RAZA REWA on December 19, 2013 at 9:59pm

अच्छा शेर है ..

वो आयें शौक से मंदिर करें मस्जिद में हम सजदा

हो काशी उनका औ काबा हमारा धाम हो जाये

Comment by Tapan Dubey on December 19, 2013 at 9:32pm
बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय आशुतोष जी
Comment by Meena Pathak on December 19, 2013 at 7:04pm

बहुत सुन्दर गज़ल हुई आदरणीय आशुतोष जी | सादर 

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