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क्‍या है प्रेम, अखंड गहमरी

क्‍या है प्रेम,
पूछते रह गये।
क्‍या हैं प्रेम,
सोचते रहे गये।
क्‍या है ,परिभाषा प्रेम की,
 खोजते रह गये।
ना मिली थी, ना मिलेगी,
परिभाषा प्रेम की।
प्रेम तो बस शायद नाम है,
ऑंखो मे बस जाने का,
दिल में सम्‍मान का,
हमारे समर्पण का,
त्‍याग अंहकार का,
बलिदान स्‍वार्थ का ,
मन में चाहत का,
नेह लगाने का,
हमें तो लगता यही है प्रेम,
हो सकता है यहीं हो प्रेम,
यही हो प्रेम की परिभाषा,
जिसकी तलाश में ,
भटक रहा अखंड है।
भटक रहा अखंड है।
मौलिक व अप्रकाशित अखंड गहमरी की प्रस्‍तुति
 

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Comment by Akhand Gahmari on November 15, 2013 at 9:48am

आप सभी को हमारा उत्‍साहवर्धन हेतु सादर प्रणाम


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 15, 2013 at 9:30am

प्रेंम को परिभाषित करती इस रचना के लिये बधाई स्वीकार करें

Comment by Abhinav Arun on November 14, 2013 at 7:30pm

ह्रदय की पवित्र भावना के नए फलक दर्शाती रचना के लिए बधाई आदरणीय और आप हमारे जनपद के हैं इसलिए स्वागत भी , अभिनन्दन भी !!

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 14, 2013 at 11:48am

सुन्दर प्रेम पगी रचना आदरणीय प्रेम को सुन्दरता से दर्शाया है आपने बधाई स्वीकारें

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 14, 2013 at 11:32am

sunder rachna hetu haardik badhaay ee sadar 

Comment by Sushil.Joshi on November 14, 2013 at 5:18am

प्रेम को परिभाषित करती इस सुंदर रचना हेतु बधाई आ0 गहमरी जी...

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 13, 2013 at 10:40pm

हाँ  बंधू

यद्यपि  प्रेम  अनिवर्चनीय है  पर अनादि  काल से हम उसे अपने अपने अनुभव या ज्ञान के आधार पर परिभाषित करते आये है

आपकी रचना में गाम्भीर्य है  साधुवाद

कृपया ध्यान दे...

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