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Ram Awadh VIshwakarma's Blog (33)

ग़ज़ल - एक अरसे से जमीं से लापता है इन्किलाब

बह्र - फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन

एक अरसे से जमीं से लापता है इन्किलाब

कोई बतलाये कहाँ गायब हुआ है इन्किलाब

एक वो भी वक्त था तनकर चला करता था वो

एक ये भी वक्त आया है छुपा है इन्किलाब

खूबसूरत आज दुनिया बन गई है कत्लगाह

जालिमों से मिल गया है अब सुना है इन्किलाब

है अगर जिन्दा तो आता क्यों नहीं वो सामने

ऐसा लगता है कि शायद मर चुका है इन्किलाब

लोग कहते हैं गलतफहमी है ऐसा है…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on June 5, 2020 at 7:46am — 18 Comments

ग़ज़ल-आ गई फिर से मुसीबत मेरे सर पर कम्बख्त

बह्र-फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फैलुन

मुँह अँधेरे वो चला आया मेरे घर कमबख्त

आ गई फिर से मुसीबत मेरे सर पर कमबख्त

इस समय खौफजदा लगती है दुनिया सारी

सबके सीने में समाया हुआ है डर कमबख्त

चाहता हूँ मैं उड़ूँ नील गगन मे लेकिन

साथ देते ही नहीं अब मेरे ये पर कमबख्त

बन के तूफान चला आया शहर के अन्दर

कर गया कितनों को बरबाद समन्दर कमबख्त

लाख चाहूँ मैं उसे मुट्ठी में कर लूँ लेकिन

दो कदम दूर ही रहता है मुकद्दर कमबख्त

वो भी कहता है कि…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 29, 2020 at 8:30am — 2 Comments

ग़़ज़़ल- फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई

बह्र - मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन

221 2121 1221 212

अन्धों के गांव में भी कई बार ख्वामखाह

करती है रोज रोज वो ऋंगार ख्वामखाह

रिश्ता नहीं है कोई भी उससे तो दूर तक

मुजरिम का बन गया है तरफदार ख्वामखाह

फोकट में एक रोज की छुट्टी चली गई

इतवार को ही पड़ गया त्यौहार ख्वामखाह

नाटक में चाहते थे मिले राम ही का रोल

रावण का मत्थे मढ़ गया किरदार ख्वामखाह

ये बुद्ध की कबीर की चिश्ती की है जमीन

फिर आप भाँजते हैं क्यूँ तलवार ख्वामखाह

खबरे बढ़ा चढ़ा…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 25, 2020 at 5:07pm — 16 Comments

ग़ज़ल - इस तरफ इंसान कड़की में

बह्र - फाइलातुन फाइलातुन फा

2122 2122 2

इस तरफ इंसान कड़की में

उस तरफ भगवान कड़की में

एक पल को भी नहीं भटका

राह से ईमान कड़की में

लाक डाउन में गई रोजी

सब बिके सामान कड़की में

ज़िन्दगी रफ्तार से दौड़े

हैं नहीं आसान कड़की में

हैं बहुत बीमार हफ्तों से

घर में अम्मी जान कड़की में

भूल बैठे सब हंसी ठठ्ठा

गुम हुई मुस्कान कड़की में

क्या कहें बरसात से पहले

ढह गया…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 23, 2020 at 9:11am — 6 Comments

ग़ज़ल

बह्र- फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाा

2122   2122  2122  2

ये हंसी ये मुस्कराहट कातिलाना है

हां तभी तुझपर फिदा सारा ज़माना है

लाॅक डाउन तोड़कर घर से निकलकर आ

देख तो मौसम बड़ा ही आशिकाना है

ये गदाईगीर का हो ही नहीं सकता

ये नगर के शाह का ही शामियाना है

बांटते थे ग़म खुशी आपस में पहले दोस्त

अब कहां माहौल वैसा दोस्ताना है

बेसबब हैं कैद घर में लोग हफ्तों से

कब रिहाई होगी इनकी क्या ठिकाना…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 17, 2020 at 8:30pm — 4 Comments

ग़ज़ल - हम अपने हिस्से का ही आसमान दे बैठे

बह्र - मफाइलुन फइलातुन मफाइलुन फैलुन

वो किस तरह से मुकरते ज़ुबान दे बैठे।

तभी कचहरी मे झूठा बयान दे बैठे।

तमाम दाग थे दामन में जिसके उसको ही

टिकट चुनाव का आला कमान दे बैठे।

दिखाया स्वर्ग का सपना हमें जो ब्राह्मण ने

तो दान में उसे अपना मकान दे बैठे।

जो बात करते थे कल राष्ट्र भक्ति का साहब,

वो चन्द सिक्कों में अपना ईमान दे बैठे।

जब उनके प्यार को माँ बाप ने नकार दिया,

नदी में डूब के वो अपनी जान दे…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 9, 2018 at 5:42am — 10 Comments

ग़ज़ल- फँस गया जाल में शिकारी खुद

बह्र- फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 22

मार कर पेट में कटारी खुद।

मर गया एक दिन मदारी खुद।

अपने कर्मों से वो जुआरी खुद।

हो न जाये कभी भिखारी खुद।

पड़ गये दाँव पेंच सब उल्टे,

फँस गया जाल में शिकारी खुद।

आगये दिन हुजूर अब अच्छे

दान देने लगे भिखारी खुद।

हैं नशामुक्ति के अलम्बरदार,

पर चलाते हैं वो कलारी खुद।

खानदानी हुनर है बच्चों में,

सीख लेते हैं दस्तकारी…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on April 6, 2018 at 5:39am — 17 Comments

ग़ज़ल- बुढ़ापा आ गया लेकिन समझदारी नहीं आई

बह्र - मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन

बुढ़ापा आ गया लेकिन समझदारी नहीं आई।

रहे बुद्धू के बुद्धू और हुशियारी नहीं आई।

किया ऐलान देने की मदद सरकार ने लेकिन

हमेशा की तरह इमदाद सरकारी नहीं आई।

पड़ोसी के जले घर खूब धू धू कर मगर

साहब,

खुदा का शुक्र मेरे घर मे चिंगारी नहीं आई।

ढिंढोरा देश भक्ति का भले ही हम नहीं पीटें,

मगर सच है लहू में अपने गद्दारी नहीं आई।

बहुत से लोग निन्दा रोग से बीमार हैं…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on February 26, 2018 at 6:34pm — 7 Comments

ग़ज़ल - अच्छा हुआ जो पाँव से काँटा निकल गया।

बह्र- मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन

संगत खराब थी तभी गुन्डा निकल गया।

अब क्या बतायें हाथ से बेटा निकल गया।

घर से निकल गया मेरे इक दिन किरायेदार,

अच्छा हुआ जो पाँव से काँटा निकल गया।

जिसको खरा समझ के खरीदा था हाट से,

किस्मत खराब थी मेरी खोटा निकल गय।

देखो तो धूल झोंक अदालत की आँख में,

होकर बरी वो ठाठ से झूठा निकल गया।

हिन्दू का घर हो या कि मुसलमान का हो घर,

घर घर अलख जगाता कबीरा निकल…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on February 14, 2018 at 4:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल- मेरा घर भी कितना हवादार है।

बह्र - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फउल

न छत है न कोई भी दीवार है।

मेरा घर भी कितना हवादार है।

हुनरमन्द होकर भी बेकार है।

अजीबोगरीब उसका किरदार है।

जिसे दूर तक सूझता ही नहीं,

वही इस कबीले का सरदार है।

भले ही जुदा धड़ से सर होगया,

अभी भी मेरे सर पे दश्तार है।

वो शेखी पे शेखी बघारे तो क्या,

सभी जानते हैं वो मुरदार है।

दवा का असर कोई होगा नहीं,

वो…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on January 29, 2018 at 9:49pm — 13 Comments

ग़ज़ल- मिला कुछ नहीं जाँच पड़ताल में।

बह्र- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फउल

मग़रमच्छ घड़ियाल को जाल में।

फँसा कर रहेंगे वो हरहाल में।

खुदा जाने होंगी वो किस हाल में।

मेरी बेटियाँ अपनी ससुराल में।

निकालो नहीं बाल की खाल को,

नहीं कुछ रखा बाल की खाल में।

नतीजा सिफर का सिफर ही रहा,

मिला कुछ नहीं जाँच पड़ताल में।

मिनिस्टर का फरमान जारी हुआ,

गधे बाँधे जायेंगे घुड़साल में।

हुई हेकड़ी सारी गुम उसकी तब,

तमाचा पड़ा वक्त का गाल में।

कभी…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on January 12, 2018 at 10:05pm — 12 Comments

ग़ज़ल - मुकम्मल भला कौन है इस जहां में

बह्र- फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन

ग़ज़ब की है शोखी और अठखेलियाँ हैं।

समन्दर की लहरों में क्या मस्तियाँ हैं।

महल से भी बढ़कर हैं घर अपने अच्छे,

भले घास की फूस की आशियाँ हैं।

मुकम्मल भला कौन है इस जहाँ में,

सभी में यहाँ कुछ न कुछ खामियाँ हैं।

ज़िहादी नहीं हैं ये आतंकवादी,

जिन्होंने उजाड़ी कई बस्तियाँ हैं।

ये नफरत अदावत ये खुरपेंच झगड़े,

सियासत में इन सबकी जड़ कुर्सियाँ हैं।

समन्दर के जुल्मों सितम…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on January 5, 2018 at 10:27pm — 16 Comments

ग़ज़ल -नये साल में कुछ नया कर दिखायें

बह्र-फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन

अँधेरे से निकलें उजाले में आयें।
नये साल में कुछ नया कर दिखायें।

गमों का लबादा जो ओढ़े हुये हैं,
उसे फेंक कर हम हँसें मुस्करायें।

जो चारो दिशाओं में खुशबू बिखेरे,
बगीचे में ऐसे ही पौधे लगायें।

न झगडें कभी धर्म के नाम पर हम,
किसी का कभी भी लहू ना बहायें।

न नंगा न भूखा न बेघर हो कोई,
चलो हम सभी ऐसी दुनिया बसायें।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Ram Awadh VIshwakarma on January 2, 2018 at 6:48am — 15 Comments

ग़ज़ल - झूठ का इश्तहार खूब चला

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

झूठ का इश्तहार खूब चला।
इस तरह कारोबार खूब चला।

कोने कोने में मुल्क के साहब,
आप का ऐतबार खूब चला।

गाँव तो गाँव हैं नगर में भी,
रात भर अंधकार खूब चला।

जो हक़ीक़त से दूर था काफी,
वो भी तो बार बार खूब चला।

नोट में दाग थे बहुत लेकिन,
नोट वो दाग़दार खूब चला।

सबने देखा है किस अदा के साथ,
बेवफा तेरा प्यार खूब चला।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 26, 2017 at 10:14pm — 20 Comments

ग़ज़ल- सर पे मेरे तभी ईनाम न था।

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

काबिले गौर मेरा काम न था

सर पे मेरे तभी ईनाम न था।

मैं जिसे पढ़ गया धड़ल्ले से,

वाकई वो मेरा कलाम न था।

हाट में मोल भाव क्या करता,

जेब में नोट क्या छदाम न था।

लोग मुँहफट उसे समझते थे,

जबकि वो शख्स बेलगाम न था।

गाँव के गाँव बाढ़ से उजड़े

बाढ़ का कोई इन्तजाम न था।

सर झुकाया नहीं कभी उसने,

वो शहंशाह था गुलाम् न था।

उसका मालिक तो बस खुदा ही था,

घर में जिनके दवा का दाम न था।

मौलिक…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 16, 2017 at 9:04pm — 29 Comments

ग़ज़ल- एक नेता हर गली कूचे में है।

बह्र - फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन

2122 2122 212

वो कबूतर बाज के पंजे में है।

फिर भी कहता है भले चंगे में है।

हम उसे बूढ़ा समझते हैं मगर,

एक चिन्गारी उसी बूढ़े में है।

ये सियासत आज पहुँची है कहाँ,

एक नेता हर गली कूचे में है।

वो मज़ा शायद ही जन्नत में मिले,

जो मज़ा छुट्टी के दिन सोने में है।

इस सियासत में फले फूले बहुत,

कितनी बरकत आपके धंधे में है।

नींद जो आती है खाली खाट पर,

वो कहाँ पर फोम के गद्दे में…

Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 7, 2017 at 10:50pm — 13 Comments

ग़ज़ल- रातें हुईं पहाड़ बताओ मैं क्या करूँ।

बह्र- मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन



रातें हुईं पहाड़ बताओ मैं क्या करूँ।

वो दिल गई उजाड़ बताओ मैं क्या करूँ।



इज़हारे इश्क जो किया तो उसने गाल पर,

मारे हैं ताड़ ताड़ बताओ मैं क्या करूँ।



पल्लू से उसके फिर से मैं बँध जाऊँ दोस्तो,

कोई नहीं जुगाड़ बताओ मैं क्या करूँ।



क्या दिन थे वो हँसीन कभी छत पे राह में

होती थी छेड़छाड़ बताओ मैं क्या करूँ।



मेरे खिलाफ उसने कटा दी एफआईआर,

जाना है अब तिहाड़ बताओ मैं क्या करूँ।



तन्हा हूँ और… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 2, 2017 at 6:48pm — 30 Comments

ग़ज़ल - ज़माना खराब है

मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन



हर सू है मारधाड़ ज़माना ख़राब है।

खोलो नहीं किवाड़ ज़माना ख़राब है।



गुन्डों को सीख दे के मुसीबत न मोल लो,

ये देंगे घर उजाड़ ज़माना ख़राब है।



ले दे के अपना काम कराओ किसी तरह

कर लो कोई जुगाड़ ज़माना ख़राब है।



बच्चे भी तंज कसते हैं मुझ पर अदा के साथ,

हँसते हैं दाँत फाड़ ज़माना ख़राब है।



पहले कभी हमारे भी क्या ठाठ बाट थे,

अब झोंकते हैं भाड़ ज़माना खराब है।



अब दो टके में भी न कोई पूछता मुझे,

मैं… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 28, 2017 at 10:50pm — 11 Comments

ग़ज़ल- अभी तक शख्स वो जिन्दा है साहब

मफाईलुन मफाईलुन फऊलुन

1222 1222 122





अभी तक शख्स वो जिन्दा है साहब।

निडर होकर जो सच कहता है साहब।



सभी हैं अपनी अपनी जिद पे कायम,

किसी की कौन अब सुनता है साहब



झगड़ने का कोई मुद्दा नहीं है,

यहाँ बेबात का झगड़ा है साहब।



बचाने को हमें ठिठुरन से सूरज,

बहुत दिन बाद फिर निकला है साहब।



ग़रीबी मुल्क से जायेगी अब तो,

सभी अखबार में चर्चा है साहब।



बुजुर्गों से बहुत आगे हैं बच्चे,

जमाना कुछ न कुछ बदला है… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 20, 2017 at 2:53pm — 5 Comments

ग़ज़ल - जानवर कितने समझदार मिले

बह्र- फाइलातुन मुफाइलुन फैलुन

2122 1212 22



शेर की खाल में सियार मिले।

जानवर कितने समझदार मिले।



मुझसे जो दूर दूर रहते थे,

जब पड़ा काम बार बार मिले।



जिनकी किस्मत में सिर्फ बीड़ी है,

उनके होठो पे कब सिग़ार मिले।



हर किसी की यही तमन्ना है,

देश में सबको रोजगार मिले।



कैसी हसरत है नौजवानों की,

उनको शादी मैं मँहगी कार मिले।



उसने टरका दिया हमें हर बार,

उससे दफ्तर में जितनी बार मिले।



अपनी किस्मत… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 3, 2017 at 10:39pm — 14 Comments

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