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बसंत कुमार शर्मा's Blog (114)

ग़ज़ल- फासला रह गया

मापनी २१२ २१२ २१२ २१२ 

रात दिन बस यही सोचता रह गया

पास आकर भी क्यों फासला रह गया  

 

पत्थरों से लड़ाई कहाँ तक करे,

तोप का मुँह सिला का सिला रह गया

 

चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई,

बेखबर देखता आइना रह  गया

 

वज्न…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 7, 2017 at 9:30am — 19 Comments

हास्य ग़ज़ल - खूब फटे में टांग अड़ाएं

यार चलो  नेता बन जाएँ

खूब  फटे  में टाँग अड़ाएँ  

 

शेयर जैसे सुबह उछलकर,

लुढ़क शाम को नीचे आएँ

 

जंतर मंतर पर जाकर हम,

मूंगफली  का  भाव बढ़ाएँ

 

उल्टा पुल्टा बोल बोल कर,

चप्पल, जूते, थप्पड़ खाएँ…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 6, 2017 at 8:30am — 10 Comments

गजल- कोई न ठिकाना है

मापनी २२१ १२२२ २२१ १२२२

 

नफरत के किले सारे, अब हमको ढहाना है

जब हाथ मिलाया है, दिल को भी मिलाना है



चुपचाप  न बैठोगे,  पाओगे  सदा  मंजिल,

दुश्मन है तरक्की का, आलस को भगाना है…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 5, 2017 at 8:30am — 4 Comments

ग़ज़ल - तुमसे मन की बात हो गई

बहर- फैलुन*4

तुमसे मन की बात हो गई  

सावन सी बरसात हो गई,  

 

जब से आये हो जीवन में,

पूनम सी हर रात हो गई

 

नैनों से जब नैन मिले तो,

सपनों की बारात हो गई

 

दिल में तुमने हमें बसाया,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 3, 2017 at 1:34pm — 4 Comments

पैदा वो हालात न कर

इतनी ज्यादा बात न कर

वादों की बरसात न कर

 

ह्रदय बड़ा ही नाजुक है,

उस पर यूँ आघात न कर

 

ख्यात न हो कुछ बात नहीं,

पर खुद को कुख्यात न कर

 

मानव को मानव रहने दे,

ऊंची नीची जात न कर

 …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 2, 2017 at 10:02am — 20 Comments

खुला ह्रदय का द्वार नहीं है

मापनी २२ २२ २२ २२ 

यदि करना इनकार नहीं है,

क्यों करता इकरार नहीं है

 

सच से रहता उसका झगड़ा,

झूठ  मुझे स्वीकार नहीं  है

 

शूल नहीं है प्रेम अगर, तो,

फूलों का भी हार नहीं है

 

दिल से कभी न कह…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 30, 2017 at 9:30am — 11 Comments

घर में टूटी खाट

फटे हुए कपड़े हैं तन पर,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू बस बारिश की,
जोह रहा है बाट.
सूद समेत ले गए सब कुछ,
साहूकार हमारे,…
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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 25, 2017 at 10:00am — 2 Comments

बया का घोंसला- दोहे

तिनका लेकर चौंच में, मन में भर उल्लास
बया बनाती घोंसला, जग में सबसे ख़ास

इक बबूल के पेड़ पर, बसा बया का गाँव
भरी दोपहर में मिले, उसको ठंडी छाँव

छन छन कर आती हवा, नहीं धूप का काम
मई जून में कर रही, बया वहाँ आराम

गर्मी, सर्दी, बारिशें, हो आँधी तूफ़ान
सदा बया का घोंसला, रहता सीना तान
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by बसंत कुमार शर्मा on May 24, 2017 at 9:46am — 4 Comments

ग़ज़ल - किस्से कहानी हो गए

२१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

छोड़कर हमको किसी की जिंदगानी हो गए

ख्वाब आँखों में सजे सब आसमानी हो गए

 

प्रेम की संभावनाएँ थीं बहुत उनसे, मगर,

जब मिलीं नजरें परस्पर,शब्द पानी हो गए

 

वो उगे थे जंगलों में नागफनियों की तरह,

आ गए दरबार में तो…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 22, 2017 at 3:30pm — 16 Comments

माँ

सुख के दुख के हर सांचे में, मिटटी जैसी ढलती माँ

मैं क्या कोई जान न पाया, कब सोती कब जगती माँ

गाँव छोड़कर, गया नगर में, लाल कमाने धन दौलत,

अच्छे दिन की आशा पाले, रही स्वयं को ठगती माँ

दीवाली पर सजते देखे, घर आँगन चौबारे

रहे भागती और दौड़ती, पता नहीं कब सजती माँ

घर के कोने कोने का, दूर अँधेरा करने को,

दीपक में बाती के जैसी, रात रात भर जलती माँ

बेटी और बहू की खातिर, जोड़े जाने क्या क्या तो,

सपने बुनकर…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 18, 2017 at 10:25pm — 4 Comments

उड़ती हुई पतंग

एक नवगीत

 

गायब हैं नकली रंगों में,

होली के हुडदंग.

नजर न आती आसमान में,

उड़ती हुई पतंग.

 

पड़ी ठण्ड जब रहे सिकुड़ते,

मिली न छत सबको,

मई जून में खूब तपाया,

सूरज ने…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 10, 2017 at 9:31am — 6 Comments

कोई रिश्ता निभाया जा रहा है

मापनी -१२२२ १२२२ १२२

कोई रिश्ता निभाया जा रहा है

मुझे फिर से बुलाया जा रहा है

 

भले ही खिड़कियाँ हैं बंद घर की,

मगर परदा उठाया जा रहा है

 

पड़ीं हैं नींव में चुपचाप ईंटे,

भले बोझा बढाया जा रहा…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 9, 2017 at 10:00am — 19 Comments

ख्वाब भी तेरा सताता है मुझे

एक ग़ज़ल का प्रयास

२१२२ २१२२ २१२

 

नींद में आकर सताता  है मुझे

ख्वाब भी तेरा जगाता है मुझे

 

झूमती आती घटायें बदलियाँ,

प्यार का मौसम बुलाता है मुझे

 

सर्दियों में सूर्य भाया था बहुत,  …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 8, 2017 at 10:00am — 14 Comments

कौन भरेगा पेट - एक नव गीत

कौन भरेगा पेट  

 

छोड़ा गाँव आज बुधिया ने,

बिस्तर लिया लपेट

उपजायेगा कौन अन्न अब,

कौन भरेगा पेट  

 

गायब हैं घर में खिड़की अब,

दरवाजों की चलती है

आज कमी आँगन की हमको,

बहुत यहाँ…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 6, 2017 at 7:30pm — 10 Comments

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