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जमीं पर बीज उल्फत के कोई बोता नहीं दिखता.
लगाता प्रेम सरिता में कोई गोता नहीं दिखता.
करे अपराध कोई और ही उसकी सजा पाए,
वो कहते हैं हुआ इंसाफ़, पर होता नहीं दिखता.
झरोखे हैं न आँगन है, न दाना है न गौरैया,
सुनाये राम का जो नाम वह तोता नहीं दिखता.
सभी बेटों ने अपनी एक नई दुनिया बसा ली है,
कि अब दादी के’ हाथों में यहाँ पोता नहीं दिखता.
हुए जंगल नदारद सब, बचे बस ठूँठ पेड़ों के,
बुझा दे प्यास वन में जो कहीं सोता नहीं दिखता.
लुटे कोई पिटे कोई किसी को कुछ नहीं मतलब,
पराये दुख में अब कोई यहाँ रोता नहीं दिखता.
यहाँ साहित्यकारों की यक़ीनन है बड़ी महफ़िल,
सभी अपनी सुनाते हैं कोई श्रोता नहीं दिखता.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय Rachna Bhatia जी सादर नमस्कार
आपकी हौसला अफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी बेहतरीन ग़ज़ल हुई बधाई स्वीकार करें।
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
'जमीं साहित्यकारों की यहाँ पर खूब हैं महफ़िल'
इस मिसरे में 'जमीं' को "जमी" और 'हैं' को "है" कर लें ।
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी सादर नमस्कार
आपकी हौसला अफजाई के लिए सादर नमन
आ. बसंत जी,
तंग काफ़िये में अच्छी ग़ज़ल हुई है ..बधाई
जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब
आपकी हौसलाफजाई का दिल से शुक्रिया, इसी तरह स्नेह बनाये रखें सादर नमन
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई ही हमारा संबल है, सादर आभार
आदरणीय Chetan Prakash जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाफजाई से गदगद हूँ, सादर नमन आभार
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई प्रस्तुत है। सादर।
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