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मापनी २२१ १२२२ २२१ १२२२

 

नफरत के किले सारे, अब हमको ढहाना है
जब हाथ मिलाया है, दिल को भी मिलाना है

चुपचाप  न बैठोगे,  पाओगे  सदा  मंजिल,
दुश्मन है तरक्की का, आलस को भगाना है
 
बारूद के ढेरों  पर,  इंसान  यहाँ  बैठा,  
आतंक के परचम को, दुनिया में झुकाना है

हर रोज हमें खलती, पानी की कमी बेशक,
पर फूल मरुस्थल में, हमको ही खिलाना है

वादा जो किया तुमने, हर हाल निभा देना,
ये प्यार की दुनिया है, चलता न बहाना है

हों लाख कड़े पहरे, दरिया के किनारों पर

इस प्रेम के दरिया में, डुबकी तो लगाना है

 

खुशियाँ हों भले थोड़ी, मिल साथ मना लेना,

भरमार  गमों  की  है, कोई न ठिकाना है

 ''मौलिक एवं अप्रकाशित'' 

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 6, 2017 at 8:54am

आदरणीय Mahendra Kumar  जी आपकी हौसला अफजाई के लिए ह्रदय से आभार 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 6, 2017 at 8:54am

आदरणीय Mohammed Arif जी आपकी हौसला अफजाई के लिए ह्रदय से आभार 

Comment by Mahendra Kumar on June 5, 2017 at 8:26pm

हर रोज हमें खलती, पानी की कमी बेशक,
पर फूल मरुस्थल में, हमको ही खिलाना है ...वाह! 

बढ़िया ग़ज़ल है आ. बसंत जी. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by Mohammed Arif on June 5, 2017 at 4:42pm
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, एक और धमाकेदार ग़ज़ल का आगाज़ । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।

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