For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

Neeraj tripathi's Blog (25)

हिन्दुस्तान मेरा था

तुम्हारे दर पे वो सारा सामान मेरा था,
गली के दायें से चौथा मकान मेरा था,
और तुम जिसे कहते हो पाक़ मुल्क हुज़ूर,
पुराने वक़्त में हिन्दुस्तान मेरा था;

आज तुम मानवता की सारी मिसाल भूल गए,
पडोसी होकर के अपनी दीवार भूल गए,
हमें देखकर नुक्लिअर होना याद रहा,
हम सब का एक ही 'परवरदिगार' भूल गए;

Added by neeraj tripathi on July 17, 2011 at 10:25am — No Comments

बूंदों का बहना स्वीकार करो

फुहारों में रिमझिम बरसती,

या पेड़ों के,

मादक पत्तों से,

रिस रिस कर गिरती,

ये पानी की बूँदें हैं,

इनका मौसम से,

अपना सरोकार होता है,

और ज़रा गौर करेंगे तो,

हर बूँद का,

अपना आकार होता है...



बादलों से निकलती हैं,

तो बारिश बन जाती हैं,

अनुपात में गिरें तो जीवन,

वरना बहुत कहर ढाती हैं,

अधिक होने पर,

सैलाब आता है,

और हम आप कितना भी कर लें,

धरती का दर्द,

इन्हें सोख नहीं पाता है,

और यदि ये न बरसें,…

Continue

Added by neeraj tripathi on July 17, 2011 at 10:24am — No Comments

हम भी मुस्कुराएंगे

तुम जो कहते थे दोस्ती है,

हमने सोचा था आजमाएंगे;



तुम हमेशा आसरा दिखाते थे,

सोचा हम भी आशियाँ लुटाएंगे;



तुम किनारे पर मगर कैसे पहुंचे,

हमने सोचा था, दोनों डूब जायेंगे;



तुम जिस गली में रहते हो,

हम वहां अब गश्त न लगायेंगे;



तुम्हारा दामन पाक रहे हरदम,

हम गुनाहों का खाम्याज़ा पायेंगे;



तुमने तोड़े थे जो पेड़ों के पत्ते,

सूख गए हैं, हम उन्हें जलाएंगे;



तुम्हारी जिंदगी, जिंदगी रहे 'नीरज',

अज़ल से पर हम भी न… Continue

Added by neeraj tripathi on June 18, 2011 at 12:59pm — 2 Comments

आंच में ही फूलता है

आज उमस में शरीर से कुछ यूँ पसीना बहता है,

जैसे तेरी आँखों से ऐतबार बहा करता था;

मुहं से कुछ न बोलते थे लफ़्ज़ों से लेकिन,

प्यार का इक हल्का सा इकरार बहा करता था;



आज बीती बातों की बूढी कहानी हो गयी है,

लफ़्ज़ों की मासूमियत भी लफ़्ज़ों में ही खो गयी है;

ये पसीना बहते बहते आज मुझसे कह रहा है,

तुम जिसे समझे मोहब्बत, मेहरबानी हो गयी है;



हमने कितना कुछ कहा था, तुमने कितना कुछ सुना था,

फिर भी क्यों पिछला दिखाने, तुमने लम्हा वो चुना था;

उँगलियों… Continue

Added by neeraj tripathi on June 14, 2011 at 11:15am — No Comments

जीवन एक डब्बा

इसमें हमारा यथार्थ है,

जो बची खुची आक्सीज़न में,

सांस लेता है,

और इसमें है कल्पनाओं का भण्डार,

जो आँख खोले है,

पर बीच बीच सोता है;

इसमें ही भावनाओं का अम्बार है,

थोड़ी हंसी है,

थोड़े हैं आंसू,

एक चहकता परिवार है;

इसमें ही मन है,

चाहतों का दर्पण है,

जिसमे शक्ल नहीं दीखती,

पर इनपे सब अर्पण है...

इसमें हमारा कल है, आज है,

और कल का मनन है,

और इसमें हम कितना ही झगड़ लें,

इसमें ही अमन है,

यूँ तो ये बहुत छोटा है,

पर इसमें… Continue

Added by neeraj tripathi on June 2, 2011 at 11:48am — 5 Comments

मेरे चमड़े का जूता

इन गर्मियों में,

अकस्मात् छाये बादल,

कहते हैं की,

हम नहीं बरसेंगे...

तो क्या हम यूँ ही,

मोतियों को तरसेंगे....

पर मैं जानता हूँ,

की आज नहीं तो कल,

ये बरसेंगे...

क्योंकि मेरे पास,

पानियों का अभाव है,

और बरसना तो,

बादलों का स्वभाव है...



आँख मिचौली खेलती धूप,

कहती है मुझे पकड़ो,

और हर बार,

छिटक कर दूर चली जाती है,

और मेरे मायूस होने पर,

फिर पास चली आती है...

मैं जानता हूँ की,

वो मुझे चिढ़ाती है,

उसके और मेरे… Continue

Added by neeraj tripathi on May 24, 2011 at 12:00pm — 1 Comment

आसमां झुकता है

कभी कभी अपनी आवाज़,

किसी अनदेखे पहाड़ से,

टकरा कर,

वापस लौट आती है,

कभी कभी,

सुबह के इंतज़ार में,

रात के बाद,

फिर रात ही आती है,

जिंदगी तब,

बेईमान लगती है,

और बिलकुल नहीं भाती है;

कभी लाख कोशिशों के बावजूद,

एक राही छूट जाता है,

बहुत सँभालने पर भी,

कांच का गिलास,

टूट जाता है,

कभी अरमानों का पुलिंदा,

एक मन में,

सिमट नहीं पाता है,

और कितना भी,

खाद दो, पानी दो,

बगीचे का एक पौधा,

रोज़ सूख जाता है;

और ऐसे… Continue

Added by neeraj tripathi on May 19, 2011 at 6:48pm — No Comments

मकड़ियाँ दिलों की

बड़ी शिद्दत से इनकी आवाजाही रंग लायी है,
किसी का न तिलक और न कहीं कोई सगाई है,
सफ़ाई रोज़ होती है, हठी ये गिर कर पलती है,
मगर फिर भी दीवारों पर मेरे चुपचाप चलती है,…
Continue

Added by neeraj tripathi on April 25, 2011 at 3:30pm — 2 Comments

मेरे गाँव के जाड़े की रात

सब कुछ शांत है...मौन | दो छूहों पर टिकी छप्पर वाली दालान में रजाई ओढ़े हुए मैं इस सन्नाटे की आवाज़ सुनने की कोशिश करता हूँ | इस रजाई की रुई एक तरफ को खिसक गयी है; लिहाज़ा जिस तरफ रुई कम है उस तरफ से सिहरन बढ़ जाती है | हल्का सा सर बाहर निकालता हूँ तो तैरते हुए बादल दीखते हैं; कोहरा है ये जो रिस रहा है धरती की छाती पर | छूहे की खूँटी पर टंगी लालटेन अब भी जल रही है...हौले हौले | अम्मा देखेंगी तो गुस्सा होंगी; मिटटी का तेल जो नहीं मिल पाता है गाँव में....दो घंटों तक खड़ा रहा था कल, तब जाकर तीन लीटर…

Continue

Added by neeraj tripathi on April 21, 2011 at 1:00pm — 2 Comments

अब अपनी पहचान लिखूंगा

बहुत लिख चुका मरण यहाँ मैं, अब मैं अमृतपान लिखूंगा,

जाने क्या समझे थे मुझको, अब अपनी पहचान लिखूंगा ;

क्यों शोक करें, उल्लास भी जब इतने सस्ते में मिलता है,

एक देह की दुनिया है ये, फिर तू क्यों आहें भरता है,

सूरज रोज़ सुबह उगता और सांझ ढले ढल जाता है,

पर उसको जो कुछ करना वह इसी बीच कर जाता है,

संकल्पों के अडिग ह्रदय पर,सावित्री का मान लिखूंगा,

मृत्यु जहाँ आकर के लौटी, ऐसा सत्यवान लिखूंगा ;



क्या मुझसे तुम लिए कभी और क्या मुझको दे जाओगे,

पर जब भी… Continue

Added by neeraj tripathi on April 19, 2011 at 12:03pm — No Comments

गलतफहमियों के लिए

किसी को कानों से सुनना,
और उस पर अमल कर जाना,
क्या ज़रूरी है !!
क्योंकि पूरे चाँद में भी,
रात की सच्चाई,
ज़रा अधूरी है...
मुझे महाभारत का,
वह कथन याद आया,
कि "अश्वत्थामा मारा गया "
ग़लतफ़हमी का शिकार,
वह कथन
द्रोण को खा गया
और हकीकत जानने से पहले ही,
एक महारथी,
काल को भा गया ,
कभी कभी भरोसा करना,
हमारी आवश्यकता नहीं,
मजबूरी है;
और गलतफहमियों के लिए भी,
थोड़ी पहचान ज़रूरी है

Added by neeraj tripathi on April 16, 2011 at 4:46pm — 4 Comments

अधेड़

कोई भरी जवानी में भी,

दिल को नहीं भाता है,

कोई अधेड़ कह कर भी,

उमंगें छोड़ जाता है,



उम्र, खुद ही,

अपने मायने तलाश रही है,

अधेड़ कह कर,

अपने ही दिलों में,

तसल्ली के राग,

गा रही है,



ये संस्कार हैं हमारे,

या सामाजिक बंधन,

कि अपने ही कान,

अपने ही दिल को,

नहीं सुनते...

पर लाख कोशिशों,

के बावजूद,

क्या आप अब भी,

सपने नहीं बुनते.....



और जैसा मैंने पहले भी,

कहा है,

पतझड़ के आने… Continue

Added by neeraj tripathi on April 7, 2011 at 11:35am — 2 Comments

भावनात्मक दरारें

माता पिता की ज़ख्मों वाली पीठ,

को न सहलाना,

परिवार की मुस्कुराहटों में,

न मुस्काना,

दोस्तों की खामोशियों में,

चुप रह जाना,

अपनों के दिलों में,

न झाँक पाना,

हमारी मजबूरियां नहीं,

कमजोरियां हैं,

जो अक्सर अपने,

बंधनों के,

एक धागे को,

तोड़ जाती हैं,

भावनात्मक दरारें हैं ये,

नहीं भरो तो,

निशान छोड़ जाती हैं .



किसी शीतल सुबह,

अपनी हथेलियों में,

ओस की बूँदें भरो,

अपने अहं को कर किनारे,

उसमे मिलाओ,

प्रेम… Continue

Added by neeraj tripathi on March 26, 2011 at 3:25pm — 15 Comments

जागो, सितारे और भी हैं.

क्यों बैठ गए तुम थककर,
ओढ़ विफलताओं की चादर;
उठो, नतीजे और भी हैं.

इक घोंसला ही उजड़ा है,
चमन पूरा ही बाकी है;
जोड़ो, कि तिनके और भी हैं.

नदी के इक किनारे पर,
जो नाविक लौट न आया;
ढूंढो, किनारे और भी हैं.

तुम्हारे आँगन में तारा,
नहीं टूटा तो रोते हो;
जागो, सितारे और भी हैं.

Added by neeraj tripathi on March 11, 2011 at 11:30am — 3 Comments

वक़्त कुछ बहका है ऐसे

कल ही था कि जब छिपाकर, फेंक देते थे हम दातुन,

नीम क़ी कड़वी तबीयत, अब दवाई हो गयी है;

कल ही था जब जेठ क़ी, दुपहरी में हम गुल खिलाते,

गर्मियों क़ी दोपहर, अब बेईमानी हो गयी है;

आमों क़ी वे अम्बियाँ, थे हम कल जिनको चुराते,

बिकती हैं बाज़ार में वो, मेहरबानी हो गयीं हैं;

और ईखों की बदौलत, राब थे हम कल बनाते,

ताज़े गुड़ की भेलियाँ अब इक कहानी हो गयीं हैं.



वक़्त कुछ बदला है ऐसे,

जैसे फ़िल्मी गीतों में अब, नृत्य के अंदाज़ बदले;



कल तक लिखे जिन खतों… Continue

Added by neeraj tripathi on March 7, 2011 at 5:48pm — 12 Comments

प्रेम की अभिव्यक्ति खातिर

सोचता था कि सितारों, पर ज़मीं को साफ़ करके,

और चंदा को टिकाकर, मैं गगन के आसरे से,

कुछ चमन खाली बनाऊं, प्रेम कि अभिव्यक्ति खातिर.



चाहता था खोद डालूं , वृक्ष के भूतल किनारे,

कर दूँ समतल इस धरा के, मस्त से परबत ये सारे,

सोख कर सारा समंदर, और नदियों की रवानी,

कुछ धरा खाली सजाऊं, प्रेम की अभिव्यक्ति खातिर.



किन्तु चंदा और तारे, वृक्ष औ पर्वत हमारे,

सारी नदियाँ सागर सारे, ये दिशायें ये किनारे,

घोल लेते हैं हमें, हैं प्रेम की अभिव्यक्ति सारे.…

Continue

Added by neeraj tripathi on March 4, 2011 at 2:25pm — 4 Comments

कितने अरमान गूंजते थे जुगनुओं से रास्तों में

वक़्त की अठखेलियों से फिर जनाज़े हाय निकले;

एक पिंजरे में कुरेदा तो अनोखे भाव निकले;

कितने अरमान गूंजते थे जुगनुओं से रास्तों में;

सुर्ख थे नींदों में सारे जब जगा तो स्याह निकले.

 

जब जलज की पंखुड़ी पर अश्रु थामे तुम खड़े थे;

दुःख तो थोड़े थे हमारे किन्तु तुम कितने बड़े थे;

नीर था चारों तरफ फिर नाव क्यों चलती नहीं थी;

हम किनारे पर डुबे थे तुम तो दरिया पार निकले.

 

सोचता हूँ इस…

Continue

Added by neeraj tripathi on March 2, 2011 at 11:12am — 5 Comments

कभी भी तम नहीं होता

रगों में गम नहीं होता, ये चेहरा नम नहीं होता;
तड़पती झील के आँचल में पानी कम नहीं होता;
जो बजती रागिनी थी उन हवाओं कि दिशाओं से;
अभी भी सत्य ही होता, महज़ ये भ्रम नहीं होता;
ज़रा सा उस समय मुहं मोड़ कर जो तुम नहीं मुड़ते;
विवशताओं की घाटी में कभी भी तम नहीं होता.

Added by neeraj tripathi on February 23, 2011 at 3:40pm — 2 Comments

क्या मन में ढूँढा था

कभी पर्वत पे ढूँढा था, कभी मधुबन में ढूँढा था;



शहर से दूर जाकर के घटा औ घन में ढूँढा था;



अमीरों की हवेली में, तुम्हे निर्धन में ढूँढा था;



दिवस की आंच में भी और रात के तम में ढूँढा था;



कहाँ तुम खो गए थे प्रिय तुम्हे हर जन में ढूँढा था.







मुझे प्रिय ढूँढने में हाय इतनी क्यों मशक्कत की;



मैं खोया ही कहाँ था जो ज़माने भर में खोजे तुम;



जगह की दूरियों को नापने में क्यों भटकते थे;



सदा से था तुम्हारे पास… Continue

Added by neeraj tripathi on February 19, 2011 at 12:52pm — No Comments

एक मिश्रण

इक और गुज़रा दिन समेटा याद में इसको;

...दफ़न हो जाएँगी अब ये मेरे मन कि दराजों में;

जो आये वक़्त परिचित तब मिलेगी रूह फिर इनको;

नहीं तो सिलवटें पड़ती रहेंगी इन मजारों में.

-----------------------------------------------------------------------------------------

वेदना कुछ भी नहीं, तब ह्रदय इतना मौन क्यों है;

क्यों हम अब भी स्वप्नते हैं, स्मृतियाँ भूली भुलाई ;

आस भी है, प्यास भी है, रौशनी कुछ ख़ास भी है;

मन हैं इतने पास अपने, हाथ लेकिन दूर क्यों… Continue

Added by neeraj tripathi on February 15, 2011 at 4:07pm — No Comments

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"स्वागतम"
2 hours ago
Nilesh Shevgaonkar joined Admin's group
Thumbnail

सुझाव एवं शिकायत

Open Books से सम्बंधित किसी प्रकार का सुझाव या शिकायत यहाँ लिख सकते है , आप के सुझाव और शिकायत पर…See More
2 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार। विलम्ब से उत्तर के लिए…"
8 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
8 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
8 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आयोजन की सफलता हेतु सभी को बधाई।"
16 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार। वैसे यह टिप्पणी गलत जगह हो गई है। सादर"
16 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार।"
16 hours ago
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)

बह्र : 2122 2122 2122 212 देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिलेझूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी…See More
17 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से…"
18 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आपने अन्यथा आरोपित संवादों का सार्थक संज्ञान लिया, आदरणीय तिलकराज भाईजी, यह उचित है.   मैं ही…"
18 hours ago
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-183
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी बहुत शुक्रिया आपका बहुत बेहतर इस्लाह"
19 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service