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मेरे चमड़े का जूता

इन गर्मियों में,
अकस्मात् छाये बादल,
कहते हैं की,
हम नहीं बरसेंगे...
तो क्या हम यूँ ही,
मोतियों को तरसेंगे....
पर मैं जानता हूँ,
की आज नहीं तो कल,
ये बरसेंगे...
क्योंकि मेरे पास,
पानियों का अभाव है,
और बरसना तो,
बादलों का स्वभाव है...

आँख मिचौली खेलती धूप,
कहती है मुझे पकड़ो,
और हर बार,
छिटक कर दूर चली जाती है,
और मेरे मायूस होने पर,
फिर पास चली आती है...
मैं जानता हूँ की,
वो मुझे चिढ़ाती है,
उसके और मेरे बीच,
दूरियां कहाँ नपनी है;
और वो कहीं भी चली जाए,
ये धूप मेरी अपनी है.....

ये आज है मेरा,
जो कल के मिलन को सरक रहा है,
ये दिल नहीं मीठा सा दर्द है,
जो ज़ोरों से धड़क रहा है...
ये कुछ बची तमन्नाएं हैं,
जो ख़ुशी से झूलती हैं,
जैसे खुली आंच पर,
घर की रोटियां फूलती हैं...
जब कल आएगा,
छिटकी चांदनी में बरसात लाएगा,
मेरी खिड़की का पट तब,
भीग जाएगा...
और गर्मियों में तपा,
बालकनी में रखा,
मेरे चमड़े का जूता भी,
भीगना सीख जाएगा...

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 26, 2011 at 10:15am

नीरज साहिब , बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति है , रचना काफी सुंदर और अर्थपूर्ण बन पड़ी है , बधाई आपको |

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