अचानक ही हो गयीं कुछ पंक्तियाँ....
बदरी के पहलू में
सूरज की अठखेली....
सूरज की साज़िश ने
लहरों की बंदिश से बूँद चुराकर,
प्रेम इबारत अम्बर पर लिख दी
सतरंगी पट ओढ़ाकर,
बूझ रही फिर भोर
प्रेम की नवल पहेली....
आतुर बदरी बेसुध चंचल
लटक मटक नभ मस्तक चूमे,
अंग-अंग सिहरन बिजली सी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 18, 2014 at 7:30pm — 14 Comments
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
बहुगुणित कर कर्मपथ पर तन्तु सद्निर्मेय के
मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने
दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने
दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो
मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो
तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के
रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के
श्रेष्ठ हो जो मार्ग राही वो सदा ही पथ्य है
हर घड़ी युतिवत निभाना जो मिला…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 9, 2014 at 12:26pm — 24 Comments
कभी यूँ भी हुआ है
कि
मन ही मन
उन्हें बुलाया
और वो दौड़े आये हैं...
मीलों के फासलों को झुठलाते,
मुलाकातों की सौगातें लिए,
दबे पाँव
नींदों में....
मुमकिन नहीं
जिन बीजों का पनपना भी,
उनकी खुशबू से
ख़्वाबों में महकती हैं
फिजाएं अक्सर....
और,
मैं मुस्कुराती हूँ ....
क्योंकि-
दिवास्वप्न
जिनकी मंजिल तक
कोई राह नहीं जाती
शुक्र…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2014 at 5:00pm — 14 Comments
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