आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय महेंद्र कुमार जी ,आपको लघु कथा पसंद आई मेरा लेखन सार्थक हो गया दिल से बहुत बहुत शुक्रगुजार हूँ .
वाह, बहुत बढ़िया, सार्थक और अच्छा सन्देश देती रचना विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
लघुकथा गोष्ठी २३-- "धारा के विपरीत" के अंतर्गत
"उँहहहह क्या औकात है"
पेडीक्योर किये हुये संगमरमर से सफेद नाज़ुक पैरों में पड़ी लाल लाल से रंग की सैंडिल मानो मन ही मन अपने संग बैठी चप्पल पर बुदबुदाई।
"ओहहहहह"
नज़दीक बैठे दो मजबूत पैर जिसकी एड़ियां कुछ फटी हुई सी थी, उसने उँगलियों को यथासंभव सिकोड़ने की कोशिश की। भूरे से रंग की चप्पल जो बहुत ध्यान से देखने पर पता लग पाता था कि मैंचिंग धागे की खूबसूरत सिलाई से सिली है, उसके मन से निकला।
वेटिंग रूम में दो महिलायें पहली सविता जिसके घर नाती आया था तो बेटी व दामाद के बुलावे पर जा रही थी व साथ में अपनी कामवाली को ले जा रही थी मदद करने के लिये, ताकि जिस मदद के लिये बेटी दामाद ने बुलाया था उस मदद को करने के लिये सविता को हाथ न हिलाना पड़े।
"तुम जल्दी ही अपने पैरों पर चलोगे डा.साब नाप लेकर तुम्हारे लिये पैर बना देंगें।" कहते हुये
एक किशोर वय के युवक को बांहो में उठा कर दो पुरूषों ने सम्हाल कर उसी बैंच के किनारे बिठा दिया । घुटनों के नीचे दो लुंजपुंज मांस के लोथड़े लटक रहे थे।
वातावरण स्तब्ध था सैंडिल और चप्पल के निरर्थक वार्तालाप पर।
(मौलिक और अप्रकाशित)
लघुकथा अच्छी और संदेशपरक है, किन्तु प्रदत्त विषय के आस पास भी नहीं है आ० आभा चंद्रा जीI बहरहाल सहभागिता हेतु हार्दिक अभिनन्दन स्वीकार करेंI
आद० आभा चन्द्र जी ,आयोजन में आपको पहली बार पढ़ रही हूँ आपका स्वागत है अच्छा लिखा है आपने किन्तु जैसा आद० योगराज जी ने कहा है की प्रदत्त विषय के अनुरूप नहीं लग रही है आप दुसरे रचनाकारों की लघु कथाएँ भी पढ़िए आपको बहुत कुछ स्पष्ट होगा बहुत से बिंदु स्पष्ट होंगे .आयोजन में इसी तरह भाग लेती रहिये .
बहुत अच्छी कथा ,बढ़िया ढंग से कही गई बधाई आपको आदरणीया आभा जी इसी कथ्य को कुछ आज के विषय से जोड़ देने से मंच की सार्थक कथाओं में से एक होती
आदरणीया आभा जी, बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. हार्दिक बधाई. सादर
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