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टकराव — डॉo विजय शंकर

फिर एक बार 

स्वाधीनता का 

जश्न मनाया हमने। 

पर अभी भी स्वाधीनता 

का अर्थ  समझने 

की कोशिश नहीं की हमने।     

स्वाधीन होने का मर्म अभी भी , 

समझ में नहीं आया हमें।

स्वाधीन होने के भाव में  

स्वयं अपने आधीन हो 

जाने का बोध क्यों कर 

समझ में नहीं आता हमें , 

या क्यों नहीं भाता हमें ? 

स्वतंत्रता का भाव क्यों 

बार बार टकरा जाता है 

हमारे स्वाधीनता के भाव से , 

क्यों नहीं मुक्त होने देता हमें 

हमारी पराधीनता के भाव से ? 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2018 at 7:53am

आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , आपकी पारखी नज़र के साथ आपकी सटीक टिप्पणी के लिए ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2018 at 7:48am

आदरणीय सुरेंद्र नाथ कुशक्षत्रप जी , कविता पर आपकी बधाई हेतु ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2018 at 7:46am

आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी , नमस्कार , प्रस्तुत कविता को मान देने के लिए आपका आभार एवं धन्यवाद , सादर।

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2018 at 7:41am

आदरणीय सुश्री बबीता गुप्ता जी , इस छोटी सी कविता को स्वीकार कर मान देने के लिए आपका आभार एवं धन्यवाद , सादर।

Comment by Samar kabeer on August 16, 2018 at 6:39pm

आली जनाब डॉ.विजय शंकर जी आदाब,ग़ुलामी के असरात आज भी ज़ह्न पर हावी हैं,जो कुछ समझने नहीं देते,सच्ची कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by नाथ सोनांचली on August 16, 2018 at 1:39pm
आद0 विजय जी सादर अभिवादन। भावपूर्ण रचना पर बधाई स्वीकार कीजिये।
Comment by Mohammed Arif on August 16, 2018 at 8:19am

आदरणीय विजय शंकर जी आदाब,

                            पराधीनता का भाव ही हमें मुक्त नहीं होने देता है , सही कहा आपने । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by babitagupta on August 15, 2018 at 3:18pm

दासता की सोच अभी भी कही चपकी हुई हैं, सटीक पंक्तिया ,बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।

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