गाड़ी रूकते ही मैं ढाबे की तरफ़़ बढ़ा। कुर्सी पर बैठते हुए छोटू को पास बुलाया।
उस से बात करने लगा, जैसे अक्सर ही मैं ऐसा करता हूँ, ऐसा करना मेरा काम है, किसी को अच्छा या नहीं लगता। ये जानना मेरा काम नहीं ।"
“आप इन से क्या बात करते हो?" दूसरी तरफ बैठे मालिक ने उठ कर बालो से उस पकड़ा अंदर की ओर ले कर जाते हुए कहा
आप को यहाँ काम के लिए रखा है, बातों के लिए नहीं।
"भाई साहिब,कुछ लेना है,आप ने।" उसने मेरी तरफ
देखते हुए कहा
“नहीं,बात करनी है,इस और आप से।"
“बातों के लिए हम फरी नहीं।“ मालिक ने कहा
“पर ये तो आप को बताना होगा कि इस लड़के की उम्र क्या है?”
“इस के माँ बाप को पता होगा,मेरा क्या लगता है,जो मैं इस की उम्र बारे जानकारी रखूँ?“
“इसकी उम्र कुछ भी हो,हमारे तो इस काम ही करना है, वोट तो हम डालने को कहना नहीं है।“
"उम्र के बारे तो जानना ज़रूरी है, खास तौर पर जब ये आप के पास काम कर रहा।" मैंने कहा
"अब तक तो किसी ने पूछा नहीं, आप कौन...?"
"तब बताते हैं पहले इसके बालों को छोड़ दो, जब वह उस को अंदर ले जाने की कोशिश कर रहा था।
"इस को बातें करने के लिए नहीं, काम करने के लिए रखा है"
"भाई साहिब, आप इसको ऐसे क्यों पकड़ा था ?"
"मेरा आदमी है, मैं जो चाहूँ इस से करवा सकता हूँ, जैसे चाहूँ रख सकता हूँ,आप कौन ,पैसे देते है?"
"मगर मारने व गाली निकालने के भी तो पैसे नहीं देते,सुबह पाँच से रात देर तक काम के लिए देते हो" मैंने कहा
"क्या गलत कर रहा हूँ, पैसे देता हूँ, इनका घर चलता है, पता ये काम नहीं कर सकता ।"
“क्या हुआ है,इसको?”
“जो देखना नहीं चाहते आप।“
“मैंने अपना पहचान पत्र दिखाते हुए कहा।"
" हमें तो पता नहीं ..." उसने कहा
मैंने मोबाइल निकाला और गाड़ी की तरफ इशारा किया।
वह बार-बार कह रहा था, साहिब जी, आगे से ध्यान रखेंगे। मैं उस छोटू में पाठशाला गए अपने रमन को तलाशने लगा।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, बालश्रम जैसी सामाजिक सरोकार सम्बन्धी विषय पर सूंदर रचना की प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें ।
“क्या हुआ है,इसको?”
“जो देखना नहीं चाहते आप।“// अगर हर जागरूक नागरिक ये देख पाता और एक कदम उठा लेता तो बालश्रम का रोग बहुत पहले देश से खत्म हो गया होता। आपके अपने अंदाज में कही गई प्रभावशाली रचना के लिये बधाई
आदाब। कथानक व कथ्य बेहतरीन है। पात्रों को एकदम स्पष्ट न कर, सरप्राइज एलीमेंट बरकरार रखने वाली शैली में बढ़िया कथोपकथन कराते हुए बढ़िया अंत के साथ ढेर सारा अनकहे में छोड़ा गया है पाठक को बालश्रम के मुख्य मुद्दे को उभारते हुए। हार्दिक बधाई जनाब मोहन बेगोवाल साहिब। शीर्षक चरितार्थ हो रहा है। हाँ, इस तरह का सरप्राइज एलीमेंट कभीकभी पाठक को उलझा भी देता. है। सो.तदनुसार तनिक परिमार्जन व कसावट कर दी जाये तनिक सहज इशारे के साथ, तो बेहतर होगा। सादर।
आदरणीय जी लघु कथा की विषय वस्तु सुंदर होते हुए भी भाषायी त्रुटियों के कारण अपने सौंदर्य को खो रही है। आदरणीय हरिओम श्रीवास्तव जी की टिप्पणी से संज्ञान लें। सादर ...
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी,मझे ज्ञात नहीं कि आप कब से लघु कथाएँ लिख रहें हैं और कैसी लिखते हैं? लेकिन यह कथा बहुत कमजोर जान पड़ी। भाषा में सुधार की महती आवश्यकता है।
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