आसां कहाँ यह इश्क था मत पूछिए क्या क्या हुआ ।
हम देखते ही रह गए दिल का मकाँ जलता हुआ ।।
हैरान है पूरा नगर कुछ तो है तेरी भी ख़ता ।
आखिर मुहब्बत पर तेरी क्यों आजकल पहरा हुआ ।।
पूरी कसक तो रह गयी इस तिश्नगी के दौर में ।
लौटा तेरी महफ़िल से वो फिर हाथ को मलता हुआ ।।
दरिया से मिलने की तमन्ना खींच लायेगी उसे ।
बेशक़ समंदर आएगा साहिल तलक हंसता हुआ ।।
मुमकिन कहाँ है जख्म गिन पाना नये हालात में ।
घायल मिला है वह मुसाफ़िर वक्त का मारा हुआ ।।
यूँ ही ख़फ़ा क्यूँ हो गए किसने कहा कुछ आपको ।
क्यों मुस्कुराना आपका बेइंतिहा महँगा हुआ ।।
जब आसमाँ से चाँद उतरा था मेरे घर दफ़अतन ।
इस शह्र में इस बात का भी मुख़्तलिफ़ चर्चा हुआ ।।
जब सर उठाने हम चले खींचे गये तब पांव ये ।
उनको गवारा था कहाँ देखें हमें उठता हुआ ।।
अब इस कफ़स के दायरे से खुद को तू आज़ाद कर।
कहता गया मुझसे परिंदा फिर कोई उड़ता हुआ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 बसंत कुमार शर्मा साहब हार्दिक आभार ।
आ0 तेजवीर सिंह साहब तहे दिल से शुक्रिया।
आ0 राज नावादवी साहब तहे दिल से शुक्रिया।
आ0 कबीर सर सादर नमन के साथ आभार ।
आदरणीय नवीन जी सादर नमस्कार, आनंद आ गया , बहुत शानदार गजल हुई है, बधाई आपको
जनाब नवीन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय नवीन मणि जी, सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति के दिल दाद के साथ मुबारकबाद. सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
खींचा गया है पाँव तब जब उठाये हम कभी ।
उनको गवारा था कहाँ देखें हमें उठता हुआ ।।
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