1222 1222 1222 1222
महल टूटा जो ख्वाबों का तो फिर बिखरा नज़र आया ।
गुलिस्ताँ जिसको समझा था वही सहरा नजर आया ।।1
बहुत सहमा है तब से मुल्क फिर खामोश है मंजर।
उतरते ही मुखौटा जब तेरा चेहरा नजर आया ।।2
अजब क़ानून है इनका मिली है छूट रहजन को ।
मगर ईमानदारों पर बड़ा पहरा नज़र आया ।।3
सियासत छीन लेती होनहारों के निवालों को ।
हमारा दर्द कब उनको यहाँ गहरा नजर आया ।।4
वो भूँखा चीखता हक माँगता मरता रहा लेकिन ।
मेरे घर का कोई मुखिया मुझे बहरा नजर आया ।।5
बहुत बेख़ौफ़ होकर अम्न का सौदा किया उसने ।
चमन में जब तलक अम्नो सुकूँ ठहरा नजर आया ।।6
गरीबों पर शिकारी भेड़ियों ने तब किया हमला ।
लहू का जब उन्हें कोई वहां कतरा नज़र आया ।।7
जिसे हर हाल में अपनी बड़ी कुर्सी बचानी है ।
वही जनता की नजरों से बहुत उतरा नज़र आया ।।8
यहाँ तो लोग पढ़ लेते हैं साहब आपकी फ़ितरत ।
नये जुमलों में पब्लिक को बड़ा ख़तरा नज़र आया ।।9
खुलेंगी दर परत दर साजिशें बेशक करप्शन की ।
कोई हाकिम तुम्हारी बात से मुकरा नज़र आया ।।10
जो चर्चा छेड़ दी मैंने तुम्हारे कारनामे पर ।
जुबां पर दर्द लोगों का बहुत उभरा नज़र आया ।।11
हजारों कोशिशों के बाद भी पहुँचा नहीं कोई ।
तुम्हारे दिल का तो रस्ता बहुत सँकरा नज़र आया ।।12
-नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
अब आप देख लें ,मुझे जो इंगित करना था कर दिया ।
सर मैंने अरा की कैद में ग़ज़ल का प्रयास किया था ।
क़ाफ़िया मतला तय करता है,आपके मतले में क़ाफ़िया 'ऱा' है और उसका हर्फ़-रवी 'ख' सानी मिसरे में हर्फ़-ए-रवी 'ह' हो गया,आगे के अशआर में कहीं 'क' कहीं 'भ' कहीं 'त',अब आप बतएँ?
पहले भी आपको बताया था कि क़ाफ़िये के पहले बार-बार आने वाले हर्फ़(अक्षर) को हर्फ़-ए-रवी कहते हैं,जो आपकी ग़ज़ल में नहीं दिखाई देता ।
आ0 कबीर सर सादर नमन
कुछ सोचने के बाद मतले में परिवर्तन करके ऊला में हे काफ़िया रख लिया है । अब ग़ज़ल पर एक बार पुनः गौर फरमाने का कष्ट करें ।
सादर
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महल टूटा जो ख्वाबों का बड़ा ख़तरा नज़र आया ।
गुलिस्ताँ जिसको समझा था वही सहरा नजर आया ।।
बहुत सहमा है तब से मुल्क फिर खामोश है मंजर।
उतरते ही मुखौटा जब तेरा चेहरा नजर आया ।।
अजब क़ानून है इनका मिली है छूट रहजन को ।
मगर ईमानदारों पर बड़ा पहरा नज़र आया ।।
सियासत छीन लेती होनहारों के निवालों को ।
हमारा दर्द कब उनको यहाँ गहरा नजर आया ।।
वो भूँखा चीखता हक माँगता मरता रहा लेकिन ।
मेरे घर का कोई मुखिया मुझे बहरा नजर आया ।।
बहुत बेख़ौफ़ होकर अम्न का सौदा किया उसने ।
चमन में जब तलक अम्नो सुकूँ ठहरा नजर आया ।।
गरीबों पर शिकारी भेड़िया तब तब किया हमला ।
लहू का जब उसे कोई कहीं कतरा नज़र आया ।।
जिसे हर हाल में अपनी बड़ी कुर्सी बचानी है ।
वही जनता की नजरों से बहुत उतरा नज़र आया ।।
यहाँ तो लोग पढ़ लेते हैं साहब आपकी फ़ितरत ।
नये जुमलों से मंजर बहुत बिखरा नज़र आया ।।
खुलेंगी दर परत दर साजिशें बेशक करप्शन की ।
कोई हाकिम तुम्हारी बात से मुकरा नज़र आया ।।
जो चर्चा छेड़ दी मैंने तुम्हारे कारनामे पर ।
जुबां पर दर्द लोगों का बहुत उभरा नज़र आया ।।
हजारों कोशिशों के बाद भी पहुँचा नहीं कोई ।
तुम्हारे दिल का तो रस्ता बहुत सँकरा नज़र आया ।।
-नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
आ0 कबीर सर सादर नमन।
काफ़िया मतले में बिखरा और सहरा लिया है मेरी जानकारी के अनुसार यह हम काफ़िया है । अलिफ़ काफ़िया भी होना चाहिए । मैं अपने आपको काफ़िया दोष से संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ कृपया मार्ग दर्शन करें ।
सादर नमन।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,पूरी ग़ज़ल में क़ाफ़िया दोष है, ग़ौर करें ।
आदरणीय नवीन मणि साहब, आदाब. सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें. सादर.
आ0 सुर्खाब बशर साहब हार्दिक आभार ।
आ0 तेजवीर सिंह साहब हार्दिक आभार ।
आ0 लक्ष्मण धामी साहब हार्दिक आभार ।
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