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मैं बहुत कुछ सोंचता रहता हूँ पर कहता नहीं

बह्र- 2122-2122-2122-212

ज्यों हवा दस्तक करे खटखट कोई होता नहीं।।
मैं बहुत कुछ सोंचता रहता हूँ पर कहता नहीं।।

इस तरह परछाई सा महसूस होता वो मुझे।
जैसे कोई दरमियाँ अपने है पर दिखता नहीं।।

हर बुढ़ापा रात भर कुछ खोजता है जाने क्या
नींद में भी जागता रहता है क्यों सोता नहीं ।।

चौक में करता नुमाइश ,वक्त भी दल्ला हुआ।
एक झटके में मुझे क्यों नग्न कर देता नहीं।।

इक समंदर कैद है आँखों में अपने दर्द का ।
जो भरा रहता है अंदर,पर कभी बहता नहीं।।

आमोद बिन्दौरी /मौलिक अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 11, 2018 at 11:30am

अच्छी ग़ज़ल कही है...आदरणीय समर जी ने बहुत ही बारीक़ नजर डाली है..यही सीखने में सहायक है।

Comment by Naveen Mani Tripathi on October 9, 2018 at 10:36am

आ0 आमोद श्रीवास्तव जी बहुत सुंदर ग़ज़ल हुई । बधाई आपको।

Comment by Samar kabeer on October 8, 2018 at 11:47am

जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,आपकी ग़ज़ल में क़वाफ़ी सहीह नहीं हैं,इस पर विचार करें ।

Comment by Mohammed Arif on October 8, 2018 at 10:49am

आदरणीय आमोद जी आदाब,

                                बहुत अच्छी ग़ज़ल कहने का प्रयास । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे । मेरी ओर से दिली मुबारकबाद ।

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