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अबतक तो बस तन्हा हूँ - गजल ( लक्ष्मण धामी मुसाफिर)

२२ २२ २२ २


पूछ न इस  रुत कैसा हूँ
अबतक तो बस तन्हा हूँ।१।


बारिश तेरे  साथ गयी
दरिया होकर प्यासा हूँ।२।


आता जाता एक नहीं
मैं भी  कैसा  रस्ता हूँ।३।


जब तन्हाई डसती है
सारी रात भटकता हूँ।४।


हाथों में  चुभ  जाते हैं
काँटे जो भी चुनता हूँ।५।


जाने कौन चुनेगा अब
उतरन वाला कपड़ा हूँ।६।


तारों सँग कट जाती है
शरद अमावस रैना हूँ।७।


अनमोल भले बेकार पड़ा
विधवा का  ज्यों गहना हूँ।८।


मौलिक-अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 26, 2018 at 11:25am

आ. भाई ब्रजेश जी, हार्दिक आभार ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 25, 2018 at 8:49pm

वाह आदरणीय खूब ग़ज़ल कही..

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2018 at 5:45am

आ. भाई आरिफ जी, सादर अभिवादन । उपस्थिति और स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2018 at 5:42am

आ. भाई नवीन जी, उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2018 at 5:41am

आ. भाई पंकज जी, सादर अभिवादन । उपस्थिति स्नेह व बेहतर सलाह के लिए धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2018 at 5:39am

जी समर जी..

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2018 at 5:38am

आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति और सलाह के साथ ज्ञानवर्धन के लिए आभार । प्रयास करता हूँ ।

Comment by Mohammed Arif on August 22, 2018 at 9:02pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आदाब,

                                  बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद । बाक़ी गुणीजन कह चुके हैं ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on August 22, 2018 at 1:36pm

आ0 मुसाफ़िर साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई बधाई आपको ।

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 22, 2018 at 11:58am

बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है , बधाई स्वीकारें।

अंतिम शेर मुझे लिखना हो तो यूँ लिख देता, एक सुझाव है महज........

भले निरर्थक आज पड़ा हूँ

लेकिन आख़िर गहना हूँ...........अथवा

आज निरर्थक पड़ा हूँ ऐसे

ज्यों विधवा का गहना हूँ......

शेष रचनाकार स्वयं से क्या गलत क्या सही ये ज्यादा बेहतर समझता है

सादर अभिवादन के साथ

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