१२२२,१२२२,१२२२,१२२२
अता.........करदी
हमारेही मुक़द्दर में जुदाई क्यों अता करदी०
ज़रा इतना तो बतलाओ,कि ऐसी क्या खता करदी ।०
मेरी खामोशियोंको, नाम रुसवाई दिया तुमने०
कहाँ कुछ हम थे बोले, बात ऐसी, क्या, बता करदी । ०
कहाँ माँगी कहो जन्नत , ज़माने भर की दौलत भी०
मेरी तक़दीरसे, ख़ुशियाँ सभी क्यों लापता करदीं ।०
पढी बस इक ग़ज़ल हमने,कभी यारोंकी महेफिल में ०
तुम्हारा ज़िक्र क्या आया,खुदा या दासताँ करदी ।०
तुम्हारी राह पर आँखें बिछायें हम खड़े अबतक०
हमें ये देखना, आते हो तुम की या कता करदी ।।”०
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुशील सामाँ साहब, आपकी प्रेरणमयी टिप्पणीकार लिये बहुत आभार ।
दासताँ पर आपका सवाल बिलकुल ही मुनासीब है आदरणीय गुमनामजी साहब । मैं गुणी जनों को एक सटिक विकल्प सुझानेके लिये आमंन्त्रित करता हूँ
आपका धन्यवाद ।
आदरणीय बहुत सुंदर अहसासों की इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
बहुत खूब, अच्छी गजल, दास्ताँ पर विचार किया जा सकता है
ग़ज़ल अच्छी लगी बधाई. .. .. पर दासतां पर शंका है .
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