सब समझ पातेहों ऐसे इल्म क्यों होते नहीं
सबको रक्खें साथ ऐसे बज्म क्यों होते नहीं
सिर्फ़ खँजरही नहीं कुछ लब्जभी घायल करें
दर्दसे महरूम कोइ ज़ख़्म क्यों होते नहीं
हर अंधेरी रातका रोशन सवेरा तो सुना
बदनसीबीके ये दिन फिर ख़त्म क्यों होते नहीं
आमलोगों केलिये बनते हैं सब क़ानून क्यों
ख़ासलोगों केलिये कोई हुक्म क्यों होते नहीं
सब सवालोंके तुम्हारे पास हैं गर हल तो फिर
पूछनेके सिलसिले ये ख़त्म क्यों होते नहीं ।।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय किशोर कान्त जी रचना बहुत पसंद आई लेकिन तकनीकी पक्ष के बारे में आदरणीय समर सर के मशविरे पर अमल करें सादर
आपके क़वाफ़ी ग़लत हैं, क़वाफ़ी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए ओबीओ के समूह "ग़ज़ल की बातें" में आलेख मौजूद है,अध्यन करें ।
मैंने "म" का क़ाफ़िया लेकर ग़ज़ल आगे बढ़ाई है । जैसे
ईल्म, बज्म , ख़त्म इत्यादि ।
अपना प्रश्न स्पष्ट करें,मैं समझा नहीं ?
अम का काफिया
धन्यवाद सरजी ,
क्या ईस ें " अम " का किया सही होगा ?
जनाब किशोर कांत जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन ग़ज़ल अभी बहुत समय चाहती है,क़वाफ़ी भी ग़लत हैं,आप ओबीओ पर "ग़ज़ल की कक्षा" का लाभ लें,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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